कुंडलियाँ छंद-अभिलाषा चौहान

सागर सम संसार में,मानव बूँद समान।
नश्वर जीवन पर भला ,क्यों करता अभिमान।
क्यों करता अभिमान,मोह में रहता अटका।
माया में मन हार,स्वार्थ में रहता भटका।
कहती 'अभि' निज बात,बूँद से भरती गागर।
करले अच्छे कर्म,बूँद बनती है सागर।

माटी से ये तन बना,साँसों की है डोर।
प्राण-पतंगा मन बसा,धड़कन करती शोर।
धड़कन करती शोर,करें तू क्यों मनमानी।
तेरा किस पर जोर,समझ पर फेरा पानी।
कहती 'अभि' निज बात,घड़ी मस्ती में काटी।
धड़कन होगी बंद,मिले माटी में माटी।


अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक


टिप्पणियाँ

  1. अब भी चेत जा, वरना पछताने का समय भी नहीं मिलेगा !

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  2. वाह!!!!
    बहुत ही लाजवाव कुण्डलियाँ

    जवाब देंहटाएं
  3. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार(८-०१-२०२०) को "जली बाती खिले सपने"(चर्चा अंक - ३५७४) पर भी होगी।

    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    ….

    अनीता सैनी

    जवाब देंहटाएं
  4. आदरणीया अभिलाषा जी आपकी कुण्डलियाँ सच में मानवीय भावनाओं को उकेरती हैं। दर्शन जिसका मूल और सत्य जिसका अंत ! कुंडलियों में आपने दर्शन को सत्य के साथ बड़ी ही सावधानी से यथार्थपरक धरती पर उतारने की एक बेहतरीन कोशिश की है जिसके लिए आपको विशेष बधाई। कहते हैं किसी भी रचनाकार का चरित्र उसकी रचनाधर्मिता में समाहित होता है। जोकि सत्य है।  सादर 'एकलव्य'  

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    उत्तर
    1. आभार आदरणीय 🙏 आपने समय निकाल कर
      मेरी रचनाओं को पढ़ा और इतनी उत्तम टिप्पणी दी।मुझे बहुत ख़ुशी हुई।

      हटाएं

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