भीगने का मौसम आया है।


सावन का महीना आया है,
मेघों ने रस बरसाया है।
चलो मिलकर हम चलते हैं,
भीगने का मौसम आया है।

वर्षा की रिमझिम फुहारों ने,
छेड़ा है मन के तारों को।
उमड़ कर प्रेम आया है,
भीगने का मौसम आया है।

ये ऋतु बड़ी सुहानी है,
हर ओर पानी ही पानी है।
मन मेरा फिर हरषाया है,
भीगने का मौसम आया है।

नाचते मोर बागों में,
पपीहा तान छेड़े हैं।
कोयल ने सुर लगाया है,
भीगने का मौसम आया है।

बना के कागज की कश्ती,
तैरा दें बहते पानी में।
बचपन फिर याद आया है,
भीगने का मौसम आया है।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक

टिप्पणियाँ

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 5 अगस्त 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  2. बरखा की उधारों का आनंद ... काग़ज़ की नाव का सुख ... ख़ुद को भूल कर बूँदों के सहारे छोड़ने पर होता है ... सुंदर रचना ...

    जवाब देंहटाएं
  3. वर्षा की रिमझिम फुहारों ने,
    छेड़ा है मन के तारों को।
    उमड़ कर प्रेम आया है,
    भीगने का मौसम आया है।

    ये ऋतु बड़ी सुहानी है,
    हर ओर पानी ही पानी है।
    मन मेरा फिर हरषाया है,
    भीगने का मौसम आया है।..वाह !बहुत सुन्दर सखी
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  4. सावन में ये कश्ती वाली याद बड़ी कॉमन है इसी को आपने शब्द दिए हैं... सुंदर प्रस्तुती.

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय आभार,आपका अभिनन्दन है बहुत दिनों
      बाद आप दिखाई दिए।

      हटाएं

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