हटा लो घूंघट


अज्ञान का घूंघट हटा,
देख तो उसकी छटा।
तू जिसे है ढूंढ़ता,
बंदे तेरे ही पास है।

माया का घूंघट पहन,
मोह का तू करे जतन।
माया का घूंघट हटा,
अंतर्मन की ज्योति जला।

आत्मा है अपने पिय की,
प्यारी सी दुल्हनिया।
भटकती रहती सदा,
पिय मिलन को बावरी।

कितने घूंघट पहने हैं तू,
संसार के भ्रमजाल में।
एक बार हटा दे इनको,
सत्य होगा फिर सामने।

क्यों छिपाता है इसे,
जो कभी छिपता नहीं।
प्रिय मिलन को रोकना,
है तेरे बस में नहीं।

कह गए हैं संत सारे,
अज्ञान का घूंघट हटा।
निखरने दे संवरने दे,
आत्मा की सुंदरता।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित

टिप्पणियाँ

  1. क्या बात है अभिलाषा बहन---
    निरखने दे संवरने दे आत्मा की सुन्दरता ! वाह सखी !!!यही संदेश तो हमारे माननीय संतजनों ने दिया है | शुभकामना और बधाई |

    जवाब देंहटाएं
  2. सहृदय आभार रेणु बहन,आपकी त्वरित और स्नेहिल
    प्रतिक्रिया से अभिभूत हूं

    जवाब देंहटाएं
  3. कह गए हैं संत सारे,
    अज्ञान का घूंघट हटा।
    निखरने दे संवरने दे,
    आत्मा की सुंदरता।
    वा...व्व...बहुत खूब अभिलाषा दी।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत ही सुन्दर.... लाजवाब प्रस्तुति
    वाह!!!!

    जवाब देंहटाएं
  5. कह गए हैं संत सारे,
    अज्ञान का घूंघट हटा।
    निखरने दे संवरने दे,
    आत्मा की सुंदरता।
    अति सुंदर सादर स्नेह सखी

    जवाब देंहटाएं
  6. थोड़े शब्दों में बहुत ही बड़ी बात कह दी आपने....

    जवाब देंहटाएं
  7. सहृदय आभार आदरणीय राकेश जी

    जवाब देंहटाएं

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