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कान्हा अब तो आजा

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कान्हा अब तो दर्श दिखा जा मेरी बिगड़ी तू ही बना जा मैं ढोता पाप की गठरी जग भटकूँ  राह बता जा अब कितनी परीक्षा मेरी मिलने में कितनी देरी भव डूब रही मेरी नैया ज्ञान की जोत जला जा मैंने पाप किए नहीं सोचे बस बात यही मन कोंचे मन में छाया अँधियारा  तम घेरे दुख मोहे दोंचे तूने दानव कितने मारे गोकुल के भाग संवारे मैं भाव भक्ति ना जानूँ अँखियन अश्रु के धारे जब काल खड़ा मेरे आगे भय लगता प्राण भी भागे तब याद मुझे तुम आए हम कितने बड़े अभागे मैंने रो रो तुझे पुकारा  स्वार्थ का जीवन सारा तुम दानी दीन दयालु  मैं फिरता मारा मारा हे बाल कृष्ण जगदीश्वर  जग पीड़ित है विश्वेश्वर  मद माया मोह सतावे तू अपना रूप दिखा जा तुम भाव भक्ति के भूखे हम पापी भाव भी सूखे पर तेरे ही हम बालक दे दर्शन गलती भुला जा हे कान्हा अब तो आजा... अभिलाषा चौहान 

आजादी का महापर्व

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आजादी के महापर्व पर हो बस ये संकल्प हमारा गगन चूमता रहे तिरंगा उन्नत भारतवर्ष हमारा। बलिदानों की बलि वेदी पर जो आजादी हमने पाई अपने-अपने सुख में डूबे उसकी गरिमा आज भुलाई कर्म निष्ठ बन करें समर्पण  विश्व विजयी हो देश प्यारा गगन चूमता....................।। हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई आओ हम ये भेद भुला दें मातृभूमि हो सबको प्यारी कटुता के सब बीज गला दें  एक सूत्र में बँधे ये माला आशा साहस सत्य सहारा  गगन चूमता...................।। प्रेम अहिंसा करुणा का पथ सबसे उत्तम और निराला देशप्रेम हो सबसे ऊपर मित्र भाव मन हृदय विशाला धीर वीर बनकर उत्साही निज गौरव जग में विस्तारा  गगन चूमता.....................।। अभिलाषा चौहान 

छंद-सलिला

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"रोला छंद" आया सावन मास,पड़े वन-उपवन झूले। सुनी मेघ मल्हार,कृषक दुख अपना भूले। करे धरा शृंगार,गीत कोयल ने गाए। पीहर की कर याद,सखी उर मचला जाए।  शिव को करते याद,भक्त ले काँवड़ चलते। बम भोले जयकार,नहीं पग छाले गिनते। मंदिर भारी भीड़,करे भोले की पूजा। वे ही तारणहार,कौन है उनसा दूजा।। "मनहरण घनाक्षरी" मेघ छाए काले काले,वृक्ष झूमे मतवाले, कृषकों के खिले उर,देख सुख पाइए। बर्षा हुई पुरजोर,तड़ित मचाती शोर, नदियाँ उफान पर,पास मत जाइए।। बरखा के चार मास,करें पूरी जन आस, खेत-खलिहान तर,मन हर्ष लाइए।। चहुँ ओर हरियाली,जीवन में खुशहाली, भरे बाँध कूप सर,और क्या जो‌ चाहिए।। "चौपाई " उमड़-घुमड़ कर होती बर्षा  जन-मन उपवन सब है हर्षा। वन-बागन छाई हरियाली। चहुँ दिश घोर घटाएँ काली।। मेघ-मल्हार अति मन भावन। हर्ष-हर्ष जब बरसे सावन।।  मोर मगन दादुर सुर छेड़े। डूब गई खेतों की मेडें।। वसुधा ओढ़ चुनरिया धानी। छम-छम बरस रहा है पानी। नदी-नद ताल सरोवर सारे। झर-झर फूट पड़ी जलधारें।। तड़ित चंचला शोर मचाए। विरहिन डरे सहम छुप जाए।। पिय बिन कटती कैसे रातें। नयनों से होती बरसातें।। "मत्तग...

रोला छंद --आह्वान

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संकट का हो काल,धैर्य अपना मत खोना। असफल होकर आप,कभी विचलित मत होना। करते रहो प्रयास,कर्म भूमि ये  जीवन। फल की चिंता छोड़,सौंप दे अपना तन-मन।। घेर खड़ा हो काल,डटे रहना तुम रण में। साहस धीरज शौर्य,अडिगता हो बस प्रण में।। कंटक पूरित मार्ग, नहीं हो सुविधा कोई। वीर वही है देख,आस जिसने ना खोई।। सहज कहां संसार,मिली कब मंजिल ऐसे। तपता देखो सूर्य,जले ये धरती कैसे।। कंटक बाधा बीच,सुमन देखो खिल जाए। भय को पीछे छोड़,तुझे मंजिल मिल पाए।। पथिक भटकना छोड़,त्याग दे सारी माया। सीमित काल विशेष,क्षीण पड़ती है काया।। जीवन का उद्देश्य,तुझे अब पाना होगा। छोड़ेगा कब काल,भूल जा क्या है भोगा।। घेर खड़े तूफान,कभी मत तू घबराना। अपने प्रण से आज,जीत तू बाजी जाना।। छुपे बादलों बीच, सूर्य फिर भी कब छुपता। चंद्र अमावस लुप्त, पूर्णिमा पूरा दिखता।। खंदक खाई कूप,मरूस्थल घेरे कोई। बुद्धि से ले काम,राह निकलेगी सोई।। मन में दीपक आस,अगर जलता रहता है। उम्मीदों का फूल,सदा खिलता बढ़ता है।। प्रण का सारा खेल,खेल ये जीवन सारा। मन से माने हार,वही जीवन भी हारा।। करना है संघर्ष,अगर जीना है ढंग से। उर में हो बस हर्ष,भरो जीवन को र...

अनुभव - कुडलियाँ छंद

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अनुभव से बढ़कर नहीं,कोई सच्चा ज्ञान। ठोकर खाकर सीखले,वो होता इंसान।। वो होता इंसान,सत्य को जो पहचाने। दुर्गुण सारे त्याग,सुपथ पर चलना जाने।। कहती अभि निज बात,मिले तब सच्चा वैभव। पल-पल मिलती सीख,उसे कहते हैं अनुभव।। अनुभव जिनके पास हो,वो जन गुरू समान। भले-बुरे के भेद को,पल में लें पहचान।। पल में लें पहचान, बात सब उनकी मानो। कड़वी लगती सीख,भले ही झूठी जानो। कहती अभि निज बात,सीख से मिलता वैभव। आए विपत्ति काल,काम आए तब अनुभव।। अनुभव जीवन को सदा,देता सच्ची राह। कर्म करो यह जानकर,होगी पूरी चाह। होगी पूरी चाह,स्वप्न भी होंगे पूरे। लगती कड़वी सीख,घिरे घनघोर अँधेरे। कहती अभि निज बात,अगर पाना है वैभव। समझो जीवन सार,वही होता है अनुभव।। अभिलाषा चौहान 

खरपतवार....!!

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खरपतवार  यूं ही उग जाती है  अपने आप इसे हटाने की  तमाम कोशिशें भी हो जातीं नाकाम  मेरे अंतस की भूमि पर खरपतवार ने  बना ली है अपनी जगह इसको हटाने में  हो गई हूं मैं असफल उदासी की इस  खरपतवार ने धीरे-धीरे  भावों की फसल को कर दिया है नष्ट  अब नहीं उगती कोई अनुभूति  ना खिलते हैं कविता पुष्प टिड्डी दल से नकारात्मक विचार  खिलने से पहले ही  उर्वर भूमि को बना देते हैं बंजर बंजर भूमि की नीरसता ने  दूर-दूर तक फैली  उजाड़ जीवन भूमि में  नीरवता को दे दिया है आश्रय विचारों के बादल बिना बरसे निकल जाते हैं  हरीतिमा कहां दिखती है अब कंक्रीट के जंगलों में  ये कंक्रीट  मन को भी पथरीला बना रहे हैं  नमी का अभाव  शुष्क उष्ण हवा रिश्तों के रसीले पन रेतीला बना रही है  मुट्ठी में कहां टिकती है रेत फिसल जाती है  फिसल रहा है हाथों से सब कुछ भ्रमित हूं मैं  क्यों पनप रहा है रेगिस्तान क्यों नहीं है नदियों की कल-कल क्यों सूख गए आंखों के अश्रु स्त्रोत क्यों निनाद नहीं करते भाव क्यों उड़ गए पखेरू खाली सू...