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अंबे तुम्हें मनाके..

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"माता का भजन" तर्ज़-दिल में तुझे बिठा के टेक- अंबे तुम्हें मना के, कदमों में सर झुका के। फरियाद मैं करूँगा, ले दे कर कुछ टरूँगा ।। अंतरा- विघ्न हरण मंगल करणी, कर दो कँठ पपइया । गाना बजाना आए ना हमको, सदा दास गवैया ।। तो.- हृदय में लूँ बिठा के , कदमों में सर झुका के। फरियाद में करूँगा, ले दे कर कुछ टरूँगा ।। अंबे......... अंतरा- तेरे भरोसे साज उठाया,  सुर सम ताल लखाजा । सत्संगत के सागर में अंबे, बिगड़ी आज बना जा ।। तो- यह राग यूं जमा के, कदमों में सर झुका के। फरियाद में करूँगा , ले दे कर कुछ टरूँगा ।। अंबे............. अंतरा- ब्रह्मा विष्णु शिव सनकादिक, तेरा भेद नहीं पावैं । पाप का भार बढ़े पृथ्वी पर, अंबे तुम्हें मनावै ।। तो- संकट में लो बचा के , कदमों में सर झुका के। फरियाद में करूँगा , ले दे कर कुछ टरूँगा ।। अंबे......... अंतरा- जगत तारिणी तू महाकाली , नगरकोट की ज्वाला । कालों की महाकाली तू ही है, खोल दे घट का ताला ।। तो- कुंजी पर ध्यान करके , कदमों में सर झुका के। फरियाद में करूँगा , ले दे कर कुछ टरूँगा।। अंबे............ मेरे स्व.बाबा कुंअर सिंह भदौरिया 'कुंजी'की

कैसे अजब नजारे हैं

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बदले-बदले इस मौसम के रंग-ढंग न्यारे हैं  कैसे अजब नजारे हैं   धोरों में जब बहती नदियां नदियों के तन सूखे खेत करे मछली अठखेली और सरोवर भूखे सड़कों पर चलती नावें दिन दिखते तारे हैं  कैसे अजब नज़ारे हैं  पनघट घर के भीतर आया तैर रहे सब बासन कारागार से इस जीवन पर बादल करते शासन डूब चले सुख साधन सारे जो लगते प्यारे हैं  कैसे अजब नजारे हैं  सूख चले आंखों के आंसू कौन सुने अब किसकी आंख मूंद कर बैठा शासन जीवन भरता सिसकी गड्ढों में खोए विकास को ढूंढे बेचारे हैं  कैसे अजब नजारे हैं। बूंद -बूंद को तरसे प्राणी बूंद बनी है बैरन कोस रहा क्यों बैठा-बैठा  बूंद सत्य ज्यों जीवन  सागर में मिलना निश्चित है  सब भ्रम के मारे हैं  कैसे अजब नजारे हैं  अभिलाषा चौहान 

मनहरण घनाक्षरी छंद - भाव मन के

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    "मन हरण घनाक्षरी छंद"      **************** विधान-- "मनहरण घनाक्षरी"तो छंद वर्णिक छंद है।इसमें मात्राओं की नहीं,वर्णोंअर्थातअक्षरों की गणना की जाती है।8-8-8-7वर्णों पर यति होती है अर्थात अल्प विराम का प्रयोग होता है। चरण (पंक्ति) के अंत में लघु-गुरु होना अनिवार्य है।इस छंद में भाषा के प्रवाह और गति पर विशेष ध्यान दिया जाता है।गेयता इसका गुण है। छंद का नामकरण 'घन' शब्द पर किया गया है।जिसके हिंदी में चार अर्थ होते हैं- 1. मेघ/बादल,  2. सघन/गहन, 3. बड़ा हथौड़ा 4. किसी संख्या का उसी में तीन बार गुणा हैं। छंद में चारों अर्थ प्रासंगिकता सिद्ध करते हैं। घनाक्षरी में शब्द प्रवाह इस तरह होना चाहिए कि मेघ गर्जन की तरह निरंतरता की प्रतीति हो. घनाक्षरी में शब्दों की बुनावट सघन होती है जैसे एक को ठेलकर दूसरा शब्द आने की जल्दी में हो.घनाक्षरी पाठक / श्रोता के मन पर प्रहार सा कर पूर्व के मनोभावों को हटाकर अपना प्रभाव स्थापित कर अपने अनुकूल बना लेनेवाला छंद है। १. "वर्तमान स्थिति " जोड़ तोड़ गठ-जोड़,जन हित    अब छोड़। जाति धर्म भेदभाव,विष बीज बोइए।। देश हित म

हिंदी दिवस , हिंदी और हम

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कल चौदह सितंबर है।यह दिन हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है।इस दिन सबको याद आता है कि हमारी मातृभाषा हिंदी है और राजकाज की भाषा भी हिंदी है पर क्या वास्तव में हिंदी को उसका स्थान मिला है..?? जिस भाषा को राष्ट्र भाषा के पद पर सुशोभित होना चाहिए था, वह आज भी अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत है,या यों कहें कि अब तो उसके अस्तित्व पर भी संकट विराजमान हो गया है।हिंदी का शुद्ध रूप अब कहां दिखाई देता है...? खिचड़ी भाषा के रूप में प्रचलित हिंदी अपना सौंदर्य खोती जा रही है।इसके समानांतर एक और भाषा चल रही है जिसे" हिंग्लिश "कहा जाता है।देश के किसी भी तबके का व्यक्ति जब भावों को अभिव्यक्त करता है तो उसके बोलने में जो भाषा प्रयुक्त होती है,वह है" हिंग्लिश " "हिंग्लिश "में हिंदी और अंग्रेजी शब्दों का समावेश ऐसे हो गया है कि हम चाहकर भी अंग्रेजी शब्दों को हटा नहीं पाते क्योंकि हम वही काम करते हैं जो आसान लगता है,जनमानस पर साहित्य का,सिनेमा का बहुत प्रभाव पड़ताहै।आजकल जो कहानियां, कविताएं, चलचित्र हमारे सामने आ रहे हैं, उसकी विषयवस्तु और संवादों में आप स्पष्ट देख सकते हैं क

कुछ खरी-खरी...!!

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जीवन अपराधों में जकड़ा, हत्या बलात्कार सुन लूट। शासन के ढीले पंजों से, अपराधी क्यूँ जाता छूट।। न्याय बिके बाजारों में जब, पीड़ित घिसता जूते रोज। अंधा है कानून यहाँ पर, खोता जाता उसका ओज।। भ्रष्टों की है मौज यहां पर, सच्चों को ठुकराते लोग। आदर्शों की चिता जलाकर, खाते रहते छप्पन भोग ।। सड़कों पर गड्ढे कितने हैं, गड्ढों में ही जीते लोग। रोजी रोटी की चिंता में  पाले जाते कितने रोग।। झूठ बिके महँगे दामों में , सच बेचारा बना कबाड़। सच की राह चलें जो राही, उनके केवल बचते हाड़।। वैमनस्य की आग जलाकर, कैसे तापें अपने हाथ। कूट रहे हैं चांदी वो ही, जो देते हैं इनका साथ ।। देश छूटता पीछे इनसे, कुर्सी तक है इनकी दौड़। छलछंदों के चक्रव्यूह का, नहीं सूझता कोई तोड़।। आम खास बनते ही देखो, भूले अपनी वो बुनियाद । स्वार्थ- शक्ति ,सत्ता में डूबा, उसको किसकी रहती याद ।। जंजालों में उलझा जीवन, चिंता बैरी दुख भरपूर। महंगाई है नाच नचाती, आम आदमी है मजबूर।। शिक्षा महंगी नहीं काम की, बेरोजगार हैं भरमार । सपने मिट्टी मिलते जिनके, जीवन से वह माने हार।। लीपापोती करने वाले , नहीं मानते अपनी खोट। जीवन जीना होता मुश्कि

गणेश वंदना

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गीत-"गणेश वंदना" तर्ज़ -यशोमति मैया से पूछे... ********************* टेक- तेरे नाम की देवा ,रटते हैं माला। नजरें मेहर की करदो, गौरी के लाला।। अंतरा- सबसे पहले देवा, पूजा होय तुम्हारी। ज्ञान और बुद्धि के, तुम तो भंडारी।। कृपा निधान करो, उर में उजियाला। खोलो घट का ताला...।। नजरें मेहर की कर दो.... अंतरा- एकदंत दयावंत, चारभुजा धारी। माथे सिंदूर सोहे ,मूसे की सवारी।। लंबी है सूंड सुंदर, बदन विशाला। रूप है निराला।। नजरें मेहर की करदो.... अंतरा- बांझों की गोद भर दे, निर्धन को माया। अंधों को आंख देते ,कोढ़ी को काया।। तुमसा न दाता कोई ,जग प्रीत पाला। सुनो दीनदयाला।। नजरें मेहर की कर दे.... अंतरा- तैंतीस कोट दैवा ,पार नहीं पावें।  महिमा तुम्हारी हम, कहां तक गावें।। कुंजी गुरु के चरणों, मस्तक डाला। रख दी जो बाला।। नजरें मेहर की कर दो गौरी के लाला। तेरे नाम की देवा रटते हैं माला।। यह गीत मुझे मेरे बाबा स्व श्री "कुंअर सिंह जी" की डायरी में मिला।वे सत्संग के शौकीन थे।फिल्मी गानों की तर्ज पर भक्ति गीत और कीर्तन लिखा करते थे। पुराने कागजों को तलाशते हुए उनकी कीर्तन की काॅपी हाथ ल