छंद-सलिला

"रोला छंद" आया सावन मास,पड़े वन-उपवन झूले। सुनी मेघ मल्हार,कृषक दुख अपना भूले। करे धरा शृंगार,गीत कोयल ने गाए। पीहर की कर याद,सखी उर मचला जाए। शिव को करते याद,भक्त ले काँवड़ चलते। बम भोले जयकार,नहीं पग छाले गिनते। मंदिर भारी भीड़,करे भोले की पूजा। वे ही तारणहार,कौन है उनसा दूजा।। "मनहरण घनाक्षरी" मेघ छाए काले काले,वृक्ष झूमे मतवाले, कृषकों के खिले उर,देख सुख पाइए। बर्षा हुई पुरजोर,तड़ित मचाती शोर, नदियाँ उफान पर,पास मत जाइए।। बरखा के चार मास,करें पूरी जन आस, खेत-खलिहान तर,मन हर्ष लाइए।। चहुँ ओर हरियाली,जीवन में खुशहाली, भरे बाँध कूप सर,और क्या जो चाहिए।। "चौपाई " उमड़-घुमड़ कर होती बर्षा जन-मन उपवन सब है हर्षा। वन-बागन छाई हरियाली। चहुँ दिश घोर घटाएँ काली।। मेघ-मल्हार अति मन भावन। हर्ष-हर्ष जब बरसे सावन।। मोर मगन दादुर सुर छेड़े। डूब गई खेतों की मेडें।। वसुधा ओढ़ चुनरिया धानी। छम-छम बरस रहा है पानी। नदी-नद ताल सरोवर सारे। झर-झर फूट पड़ी जलधारें।। तड़ित चंचला शोर मचाए। विरहिन डरे सहम छुप जाए।। पिय बिन कटती कैसे रातें। नयनों से होती बरसातें।। "मत्तग...