छंद-सलिला
"रोला छंद" आया सावन मास,पड़े वन-उपवन झूले। सुनी मेघ मल्हार,कृषक दुख अपना भूले। करे धरा शृंगार,गीत कोयल ने गाए। पीहर की कर याद,सखी उर मचला जाए। शिव को करते याद,भक्त ले काँवड़ चलते। बम भोले जयकार,नहीं पग छाले गिनते। मंदिर भारी भीड़,करे भोले की पूजा। वे ही तारणहार,कौन है उनसा दूजा।। शिक्षक रखते ध्यान,पढ़ें नित सारे बालक। उनकी बातें मान, वही शिक्षा संचालक। नव पीढ़ी उत्थान,लक्ष्य जीवन का माने। शिक्षा से संस्कार,कर्म वह अपना जाने।। वर्षा के ये मास, मेंढकों के मन भाए। टर्र-टर्र की गूंज,गीत ये नित्य सुनाए। फुदकें जल के बीच, आहटों से डर जाते। कीट-पतंगा जीव,सदा इनको हैं भाते। प्रलय काल हर ओर,दिखे पानी ही पानी। गिरते उच्च पहाड़,गांव बन गए कहानी। हुई तबाही देख,उफनती नदियाँ सारी। किया प्रकृति से रार,पड़ी अब सब पर भारी। "मनहरण घनाक्षरी" मेघ छाए काले काले,वृक्ष झूमे मतवाले, कृषकों के खिले उर,देख सुख पाइए। बर्षा हुई पुरजोर,तड़ित मचाती शोर, नदियाँ उफान पर,पास मत जाइए।। बरखा के चार मास,करें पूरी जन आस, खेत-खलिहान तर,मन हर्ष लाइए।। चहुँ ओर हरियाली,जीवन में खुशहाली, भरे बाँध कूप सर,और...