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यादें....

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यादें उमड़ते बादलों सी देती हैं सौगातें  दिलाती हैं हर पल याद  ये जो पल तुमने जिए यही है तुम्हारी असली धरोहर खट्टी-मीठी इमली सी सौंधी मिट्टी की गंध सी महकती बयार सी इठलाती नवयौवना सी बिन बुलाए मेहमान सी  कभी भी चली आती हैं  कभी हंसाती तो कभी रुलाती हैं ये धन,वैभव, संपत्ति भी नगण्य है इनके समक्ष इनके लिए होते हैं मतभेद टूटते हैं घर बिखरते हैं रिश्ते  क्षीण पड़ती संबंधों की डोर बस ये यादें ही अपनी सबसे सगी होश संभालते ही यादें देने लगती हैं साथ दिल की धड़कन सी झपकती पलकों सी चलती सांसों सी कौन छीन सकता है भला ईश्वर भी नहीं  यही है बस अपनी अकेलेपन की सच्ची साथी प्राणों के लिए जैसे बाती कराती हैं भूलों का अहसास  बुझाती अपनेपन की प्यास ये यादें जो संचित है  ये सिखाती है जीवन का महत्व  यही है जीवन का सार तत्व  वर्तमान और भविष्य भी इनके समक्ष है नगण्य  यादें जो चली आती हैं  पखेरु सी चुगती है दाना और फिर कर देती है संचार  प्राणों में उत्साह का या छलकता निर्झर आह का  लेकिन फिर भी ये सत्य है  हम हैं ये तब भी हैं  और ह...

पीर मन की ये सुनाएं...

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ये थकित से चांद तारे ये थमी हैं जो हवाएं  पीर मन की ये सुनाएं... ये धरा उजड़ी हुई  वैधव्य की कहती कहानी। कूप सर नदियां हैं प्यासे मांगते दो बूंद पानी। तप्त तन जलती धरा का,झेलता संताप कितना। ठूंठ भी बेबस खड़े हैं, पर्वतों पर भार कितना। रुष्ट हो जलता है भानु मेघ भी अब तिलमिलाए  पीर मन की ये सुनाएं ...! भोर विरहन सी है आती,साथ में लाती उदासी। पक्षियों के बोल रूठे,ना दिखें तरुओं के वासी। धूल के उड़ते ये बादल,दे रहे संदेश कैसा। कुछ नहीं जब हाथ तेरे,बो रहे क्यों बीज ऐसा। रूप सारा हर लिया है  बोलती चारों दिशाएं  पीर मन की ये सुनाएं....! है अटी कूड़े से पृथ्वी, धैर्य अपना खो रही है। बन गए नासूर कितने,अब प्रलय हो ये सही है। हे मनु अब चेत जाओ,क्यों अति तुम कर रहे हो। स्वसुखों में स्वार्थी बन,पाप का घट भर रहे हो। है भविष्य संकट घिरा मर रही संवेदनाएं  पीर मन की ये सुनाएं....! अभिलाषा चौहान 

मैं कर्त्ता हूं...!!

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"मैं कर्त्ता हूं "यह सत्य मानकर कर मनुष्य सदा भ्रम का जीवन जीता है।वह स्वयं को सदैव अंधेरे में रखता है।यह जानते हुए भी कि उसके पैदा होने से पहले और उसके जाने के बाद भी यह दुनिया उसी तरह चलती रहेगी जैसे उसके सामने चल रही है। सही मानिए कि जिस मनुष्य इस भ्रम से मुक्त हो जाएगा ,उस दिन ना जाने कितनी समस्याओं का अंत स्वत ही हो जाएगा।पर युग बीत गए लेकिन मनुष्य इस भ्रम को सत्य मानकर जीवन जीता आ रहा है। भौतिक सुखों का दास बनकर जीवन भर भौतिक सुखों का संग्रह करता है और फिर उनका मालिक बनकर स्वयं को कर्ता मान बैठता है, यहीं से सारी समस्याएं जन्म लेती हैं,जीवन का उद्देश्य क्या है?जीवन का वास्तविक अर्थ क्या है?जीवन का आनंद क्या है?वह कभी जान नहीं पाता!! एक मनुष्य के लिए गृहस्थ जीवन सबसे बड़ा तप है।अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने और सृष्टि के सृजन में अपना योगदान देने के लिए संतानोत्पत्ति करना, उन्हें अच्छे संस्कार देना, उन्हें योग्य बनाना और संसाधन जुटाना यहां तक तो ठीक है, सब बढ़िया है पर जब संतान योग्य हो जाए तो भी स्वयं को सर्वेसर्वा मानकर परिवार का संचालन अपने ही हाथों में रखना ग़लत...

कुंदलता सवैया छंद

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           "कुंदलता सवैया" कुंदलता वार्णिक सवैया छंद है।इस छंद की रचना आठ सगण और दो लघु वर्ण से होती है। इसमें कुल छब्बीस वर्ण होते हैं।इसके चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में बारह वर्णों के बाद यति होती है। 1 जीवन सत्य दिन जीवन के अब बीत चले,मन में हरि का बस नाम जपे हम। चित चंचल है उर भी भटके,अब ध्यान धरें बस मोह करें कम।क्षण-भंगुर जीवन में हमने,कुछ भी न किया मद चूर बढ़ा तम। सच झूठ कभी कब भेद किया, सुख में अटके दुख में भरते दम। 2 जीवन लक्ष्य चल रे मन तू हरि को सुमिरै,इस जीवन का बस लक्ष्य यही रख। वह पालक भी वह तारक भी,बस जीवन में रस देख यही चख। सब नश्वर है बस सत्य वही,नित वंदन पूजन मूरत को लख। मनमीत बना उर में रख ले,यह भाव बना तब वे बनते सख। 3.प्रभू भक्ति  जग में अति सुन्दर नाम सदा, घनश्याम कहो रघुनंदन राघव। तन श्यामल हैं जिनके नयना, कमलों सम वे जग के हित बांधव। जग पालक तारक हारक वे, समझो अपना जग में तुम लाघव। उर ध्यान धरो मन नाम जपो, परमार्थ करो बनके तुम साधव। अभिलाषा चौहान   

बस पतझड़ बाकी है.....

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मिट सकता है क्या कभी अंतर  स्त्री-पुरुष का..! तुम्हें है अहम सर्वज्ञता का मैं अज्ञ सदा से मेरा विज्ञ होना  तुम्हें झकझोरता है.! तन जाते हैं तुम्हारे नथुने पड़ जाती हैं तुम्हारे भवों में सिलवटें गुर्राहट तुम्हारी अचानक से मुझे दिलाती है याद वीरान जंगल में एकत्र हिंसक जानवरों की। उनमें खो जाती है तुम्हारी पहचान डर जाती हूं मैं जब घिर जाती हूं इतने हिंसक जानवरों से..!! मिटेगा अंतर कभी समझ का मैं झुकती जाती हूं मिटाती अपना अस्तित्व तुम्हें समझने में...और तुम और ऊंचे होते चले जाते हो...! बन जाते हैं हम दो छोर कैसे मिटेगा अंतर...!! ताली दो हाथों से बजती है कमी सामंजस्य की समर्पण की बना देती है नदी के दो  किनारे.…!! जो चलते हैं साथ पर मिलते नहीं कभी पुरुष-स्त्री प्रतीक हैं अर्धनारीश्वर का मैं-तुम का विलय देता है सृष्टि को नवरुप यही सत्य,यही शिव,यही सुंदर है जो मात्र है एक स्वप्न हम बने हैं दो ध्रुव सिमटे हुए खुद में ख़ो दिया है हमने जीवन का बसंत बस पतझड़ ही बाकी है। अभिलाषा चौहान