कुण्डलिया छंद
मोहन मथुरा में बसे, वृंदावन को छोड़।
गोपी तड़पें प्रेम में,हृदय गए जो तोड़।
हृदय गए जो तोड़,विरह में नैना बरसें।
बनकर रहीं चकोर,नैन दर्शन को तरसें।
कहती 'अभि' निज बात,चैन छीने हैं सोहन।
कपटी माखनचोर,निठुर कितने हैं मोहन।
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मोहन उद्धव से कहें,ले जाओ संदेश।
विरह वियोगी गोपियाँ,बिगड़ा उनका वेश।
बिगड़ा उनका वेश,ज्ञान की देना शिक्षा।
मुझसे करें न प्रेम,रखें संयम मन इच्छा।
कहती 'अभि' निज बात,प्रेम का करके दोहन।
बैठे अब मुख मोड़,क्रूर कितने हैं मोहन।
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आनन पंकज सा लगे,खंजन जैसे नैन।
मोर मुकुट सिर पर सजे,छीने सबका चैन।
छीने सबका चैन,गात है श्यामल उनका।
अधरों पर मुस्कान,नाम मोहन है जिनका।
कहती 'अभि' निज बात,चराएँ धेनू कानन।
उनके चरण पखार, चंद्र सम शोभित आनन।
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अभिलाषा चौहान
Wah
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी सादर
हटाएंकुण्डलियां अत्यन्त प्रशंसनीय हैं अभिलाषा जी आपकी। प्रथम दो कुण्डलियों में जो भावनाएं अभिव्यक्त हैं, वे वस्तुतः मेरे ही मन की बातें हैं। इस संदर्भ में मैंने कभी एक लेख भी लिखा था। कान्हा हेतु गोपियों का निस्वार्थ एवं निश्छल प्रेम अजरअमर है, अद्वितीय है। काश दूर जा बैठे कान्हा कभी उसकी थाह ले पाते !
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय सादर 🙏🙏 आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए प्रेरणास्रोत है।मुझे खुशी है कि गोपियों के प्रेम और विरहाकुल दशा का चित्रण कर पाने में सफल हो सकी ,आपकी प्रतिक्रिया ने इसे सफल बनाया।काश मैं आपका वह लेख पढ़ पाएं।सादर
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