इंसान खो गया है







इंसान खो गया है

मजहब ही रह गया 

इंसानियत की आबरू 

का ताज ढह गया।


कुछ आग यों लगी कि

जलने लगा चमन

समझे न धर्म को जो

वो मिटा रहे वतन

जो पत्थरों सा बना

ये चोट सह गया।


ये लड़ रहे लड़ा रहे,

इस मूक भीड़ को

बस देखते उजड़ते

सब अपने नीड़ को

आंसुओं की बाढ़ में

प्रेम भाव बह गया।


ये वो धरा नहीं जहां

नीति न्याय समत्व था

धर्म -धन से ज्यादा

सबको प्रिय ममत्व था

विषधरों की फूंक से

गुलशन ही दह गया।



अभिलाषा चौहान 


टिप्पणियाँ

  1. बहुत खरी-खरी कही आपने अभिलाषा जी !
    अल्लामा इक़बाल की बात को थोड़ा बदल कर मेरा कहना है -
    मज़हब-धरम सिखाता आपस में बैर रखना
    फल कड़वा एकता का इसको कभी न चखना

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. प्रणाम आदरणीय आपकी प्रतिक्रिया के बिना सृजन कभी सार्थक नहीं हो सकता,क्या खूब कही आपने 😀 हृदयतल से आभार आपका🙏

      हटाएं

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