झड़े हुए पीले पत्ते
चल पड़े अपनी यात्रा पर
अपनी विरासत
सौंप दी उन कोंपलों को
कर दी जगह ख़ाली
पर कुछ हठी पत्ते
अब भी कर रहे संघर्ष
नयी पीढ़ी से
है उनका टकराव
नहीं छोड़ना चाहते स्थान
उनका अहम है
सर्वोपरि
नयी कोंपलों को सिखाने
दुनियादारी अपने अनुभवों से
बैठें हैं अपने स्थान पर
अड़कर
उनकी यही जड़ता
है परिवर्तन की राह का रोड़ा
आंधियों के थपेड़े
सूरज की तपिश
बारिश की मार
सिखाती है संघर्ष करना
खुद को स्थापित करना
स्वयं को सर्वज्ञ समझना
है पीले पत्तों की भूल
परंपराओं की रूढ़ियां
और उनका अहम
कोंपलों में भर देता है रोष
टकराव और दूरियों के जनक
उदारवादी बनो
समय के साथ बहो
स्वीकारो सत्य
ये संसार किसी का नहीं
सम्मान करो
उन कोंपलों का ,जो
तुम्हारी परंपरा को
इस सृष्टि को संवारना
चाहती हैं
साथ दो ,स्वामी न बनो।
अभिलाषा चौहान
सहृदय आभार प्रिय श्वेता जी सादर
जवाब देंहटाएं"स्वयं को सर्वज्ञ समझना
जवाब देंहटाएंहै पीले पत्तों की भूल
परंपराओं की रूढ़ियां
और उनका अहम
कोंपलों में भर देता है रोष"
.. हर परिवार या समाज में भी दो पीढ़ियों की आपसी टकराव की या फिर दो धर्म-सम्प्रदायों के बीच की मार-काट की वजह भी/ही ऐसी ही अहम् भरी और परम्परागत रूढ़ियों वाली मुगालताएँ ही बनती हैं .. शायद ...
(वैसे तो वर्तमान समाज में कम से कम भारत में रोष की एक और भी वजह है .. और वह है "आरक्षण" .. वो भी 10 साल की भीख बोल कर आज भी पीले पत्ते की तरह समाज-देश के शाख़ों पर 'fevibond/fevicol' से चिपका पड़ा है .. बेशर्म की तरह .. शायद ...)
आपकी इस प्रतिक्रिया से रचना का मूल उद्देश्य स्पष्ट हुआ आदरणीय।आपका ब्लॉग पर आकर रचना की समीक्षा करने से सृजन सार्थक हुआ। सहृदय आभार सादर
हटाएंवाह!सुन्दर सृजन सखी ।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी सादर
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय सादर
हटाएंVery nice
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सादर
हटाएंसराहनीय सृजन।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सादर
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