टूट-टूट कर बिखर रहीं हूँ...





टूट-टूट कर बिखर रही हूँ,

विपदा कैसी आई।

पग-पग पर नित छली गई हूँ

सहमी हूँ घबराई।


लावा अंतस में बहता था,

जला न कोई पापी।

आग लगाई औरों ने थी,

हरपल धरणी काँपी।

लाज गठरिया मिलकर लूटी,

कौन करे भरपाई।

पग-पग पर नित छली गई हूँ,

सहमी हूँ घबराई।


टूट-टूट कर बिखर रहीं हूँ,

कैसी विपदा आई।


अपने ही बैरी बन बैठे

रोज तराजू तोले।

कठपुतली सा नाच नचाकर,

जीवन में विष घोले।

खंड-खंड में बाँट दिया है,

मानव बना कसाई।

पग-पग पर नित छली गई हूँ

सहमी हूँ घबराई।


टूट-टूट कर बिखर रही हूँ,

कैसी विपदा आई।


अपना ही अस्तित्व मिटाती

करती इनका पोषण

सर्पों जैसी फितरत इनकी

करते कितना शोषण

कुछ भी मेरा रहा न अपना

दुख से हूं झुलसाई

पग-पग पर नित छली गई हूँ

सहमी हूँ घबराई।


अभिलाषा चौहान 










टिप्पणियाँ

  1. बेहतरीन अभिव्यक्ति.. अपना ही अस्तित्व मिटाती करती इनका पोषण .

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  2. बहुत ही मार्मिक व हृदयस्पर्शी रचना! पढ़ते पढ़ते आंखों में आंसू आ गए अपने किसी खास का चेहरा आंखों के सामने घूमने लगा , ऐसा लग रहा है जैसे उसी की भावनाओं को आपने अपने शब्दों में पिरो कर व्यक्त कर दिया है! एक एक पंक्ति ऐसा लग रहा है उसी पर आधारित है! पता नहीं क्यों लोग इतने निर्दयी क्यों होते हैं,😥

    जवाब देंहटाएं
  3. लावा अंतस में बहता था,

    जला न कोई पापी।

    आग लगाई औरों ने थी,

    हरपल धरणी काँपी।

    लाज गठरिया मिलकर लूटी,

    कौन करे भरपाई।

    पग-पग पर नित छली गई हूँ,

    सहमी हूँ घबराई।
    बहुत ही मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी सृजन ।

    जवाब देंहटाएं
  4. मर्म को छूता प्रासंगिक और सामयिक गीत।
    सार्थक रचना के लिए हार्दिक बधाई सखी।

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