कैसे-कैसे रिश्ते -??








कर्नल भगवान सिंह सेना से रिटायर्ड थे।बड़े ही हँसमुख मिलनसार सबको साथ में लेकर चलने वाले,उदार हृदय व्यक्तित्व के स्वामी थे।उनकी तीन बेटियाँ थीं।अच्छी-खासी जमीन जायदाद थी।उन्होंने कभी बेटों की चाह नहीं रखी।अपनी बेटियों को बेटों की तरह पढ़ाया -लिखायाअच्छे घर में उनकी शादियां की।सुख समृद्धि से भरपूर यह परिवार बड़ी ही शांति से अपना जीवन- यापन कर रहा था।समय बड़ा बलवान होता है।कब सुख,दुख में बदल जाए पता ही नहीं चलता।


उनकी तीनों बेटियां अच्छे पदों पर नौकरी कर रहीं थी।दामाद भी अच्छे थे। लेकिन बड़ी बेटी ससुराल में निभा नहीं पाई और वह मां-बाप के पास लौट आई।आरंभ में तो सब ठीक चल रहा था।लड़कियों के जाने के बाद माता-पिता अकेले हो गए थे।बेटी आ गई तो शायद उन्हें भी सहारा मिल गया। इसलिए उन्होंने भी ज्यादा कोशिश नहीं की कि बेटी को वापस ससुराल भेजने की।ऐसा लगा हमें क्योंकि उन लोगों की बातें और व्यवहार इसका आभास करा रहे थे।हम लोग एक ही गाँव के थे ।वे हमारे चाचा जी लगते थे।


समय बीत रहा था।एक दिन सुनने में आया कि बड़ी बेटी के बच्चा होने वाला है। चाचीजी ने कहा-बच्चे के लिए कोई तैयारी नहीं कर पाए।प्रीमैच्योर डिलीवरी है सो कुछ कपड़े सिलकर या खरीद कर ले आना।

सो हम पहुंच गए कपड़े लेकर।लड़की हुई थी।

ससुराल वाले नदारद थे ,कोई नहीं आया।हमने भी कुछ नहीं पूछा।आखिर चालीस साल की उम्र में उनकी बेटी मां जो बनी थी।उनकी खुशी में शामिल हुए।

समय बीता।उन लोगों ने नया घर ले लिया था जो बहुत दूर था।बस साल दो साल में तीज त्योहार पर ही मिलना हो पाता था।हमने अपने बेटे की शादी में उन्हें बुलाया तो पता चला चाचा जी बहुत बीमार हैं,उन्हें प्रोस्टेट कैंसर हुआ था।कीमो चल रही थी। वृद्धावस्था में बीमारी इंसान झेल नहीं पाता।उनकी हालत खराब थी सो हम लोग मिलने चले गए।


चाचीजी बड़ी दुखी थी।पति की बीमारी,घर का क्लेश और खुद भी बूढ़ी और असमर्थ थीं लेकिन पति की सेवा तो करनी ही थी।बड़ी लड़की से अनबोला जो चल रहा था।सब अपने -अपने मन की भड़ास निकालना चाहते थे।दबी आवाज में चाचीजी ने अपनी बड़ी बेटी की तमाम बुराइयां गिना दी।"पिता की सेवा नहीं करती,बच्ची को हमारे पास नहीं आने देती, कभी अस्पताल साथ नहीं जाती।बाप मर रहा है पर हमेशा पैसे के लिए लड़ती है और भी न जाने क्या-क्या?"हम तो सुनकर भौंचक्के से रह गए।हमने दोनों छोटी बेटियों के बारे में पूछा तो वे कहने लगीं-"उन्हें टाईम तो नहीं है पर कीमो के समय कोई न कोई आ जाती हैं। उन्हें अपना घर द्वार भी तो देखना है।"हम क्या बोलते?जब आने लगे तो बेटी बाहर तक छोड़ने आई,उसने अपनी रामकहानी सुनाई कि-" उसके माँ-बाप उसके साथ बहुत बुरा व्यवहार करते हैं।उसकी बच्ची एक-एक चीज के लिए तरसती है।महीने का खर्चा माँगते हैं।"हम तो दंग रह गए ये सब सुनकर।


दुनिया लड़के-बहू को दोष देती है।बहू तो वैसे भी कभी कहाँ किसकी सगी बनी है।अच्छी हो तो, बुरी हो तो,बहू तो बहू ही रहती है,बेटी नहीं बन सकती।ऐसा हम सुनते आए हैं,पर बेटियां तो सदैव भली होती हैं,ऐसी भलाई की कोई बात हमें वहाँ दिखाई नहीं दी।एक कहावत याद हो आई कि दूर के ढोल सुहावने होते हैं।


एक दिन सुबह -सुबह फोन की घंटी बजी।देखा तो चाचीजी के यहां से फोन था।चाचाजी का देहांत हो गया था।हम अंतिम क्रिया में नहीं पहुंच सके क्योंकि पतिदेव बीमार थे।जब तबियत सुधरी तो हम मिलने चले गए। चाचीजी बेसुध सी पड़ी थीं।छोटी बेटी अपनी ससुराल में थी और मंझली बेटी कहीं गई हुई थी।घर में बड़ी बेटी ही थी। चाचीजी की बहन थीं और कोई भी नहीं था। हमें बड़ा आश्चर्य हुआ।इतने बड़े दुख के समय बेटियों को माँ का साथ देना चाहिए पर यहां तो सन्नाटा बिखरा है।थोड़ी देर हम बैठे चाचीजी के पास ।जैसे ही बड़ी बेटी बाहर गई,चाचीजी उठकर बैठ गई ।"अब हमारा क्या होगा,कैसे जिएंगे हम।"आपके बच्चे हैं उनके सहारे जिओ चाचीजी!जीना तो पड़ता ही है।नाती-नातिन है, उनमें मन लगाओ।हमने कहा।

"अरे कोई नहीं करने वाला। ये सब तो दुश्मन है"कहकर वे फिर लेट गईं।और कुछ भी बोलतीं पर बेटी आ गई थी।हमने गौर किया कि चाचाजी के जाने के दुख से ज्यादा वहां किसी किस्म का क्लेश व्याप रहा था। लेकिन हमें क्या और हम कर भी क्या सकते थे??

हम बाहर आ गए।जब जाने लगे तो बेटी बाहर तक छोड़ने आई-भाभी आप समझाओ न इन्हें।

क्या हुआ?

"अरे कायदे से तो मैं ही इनके साथ रहती हूँ तो पगड़ी मेरे सिर बांधनी चाहिए।इनकी जिम्मेदारी तो मुझे ही उठानी है।अब वो दोनों तो यहां रहती नहीं,लेकिन अपने-अपने बेटों के सिर पगड़ी बँधवाना चाहती हैं।इस बात पर कहा -सुनी हो गई तो दोनों रूठकर ससुराल चली गईं।ऊपर से ये मौसी जी और भी महान है,कह रहीं हैं कि पगड़ी लड़कियों के थोड़ी बंधती है,हमारे लड़के के बांधो।इसपर वो भी सहमत हैं जो वहां पड़ी हैं।मैंने भी कह दिया कि जो पगड़ी बंधवाए वो इनकी जिम्मेदारी उठाए । मैंने कोई इनका ठेका ले रखा है।एक-एक पैसे के लिए परेशान कर दिया।कभी मेरा साथ नहीं दिया।अपनी बच्ची की हर जरूरत के लिए मुझे नौकरी कर पैसा कमाना पड़ रहा है।पैसे का हिसाब-किताब वो महारानी रखती हैं,बैंक में जो हैं (मंझली बेटी)मैं तो किराए के मकान में पड़ी हूं।सारे जीवन पैसे को ही रोते रहे।यदि पगड़ी किसी और के बंधी तो मैं तो इन्हें पानी भी नहीं देने वाली।मेरे लिए इन्होंने किया ही क्या है?जब देखो ज़बान पर उन दोनों का नाम रहता है।और ये मौसी जी इनकी सगी हैं उनका बेटा इन्हें ज्यादा प्यारा है। खुद तो मर गए लेकिन मेरी जिंदगी बर्बाद कर गए।अब ये मेरे गले पड़ी तो मैं इनकी सेवा तभी करूंगी जब पगड़ी मेरे सिर बंधेगी।आप बताओ मैंने कुछ ग़लत कहा।वो बोले जा रही थी, मेरा जी घबरा रहा था। सिर चकराने लगा था। रिश्तों से ज्यादा धन मायने रखता है,ये देख मैं निशब्द हो गई।"क्या था ये,कैसे संस्कार थे?कैसी परवरिश थी?माता-पिता ने अपने ही बच्चों में भेदभाव कर आजीवन शत्रु बना दिया।सोच-सोचकर मेरा दो दिन दिमाग खराब रहा।जब बच्चे ही इतने लोभी हो जाएं तो बाहर वालों को क्या दोष दें। मैं सोच रही थी कि इसमें किसकी गलती है?क्या माता-पिता की नहीं!जो अनजाने ही पक्षपात पूर्ण रवैया अपनाकर बच्चों को एक दूसरे का शत्रु बना देते हैं।कोई तो कारण होगा?ताली कभी एक हाथ से तो नहीं बजती।

और तो और जो चला गया था उसको लेकर किसी की आंखों में न तो कोई दर्द था और न ही उसकी याद।बस जो विरासत थी उसका लोभ सर्वत्र पसरा हुआ था।


अभिलाषा चौहान 


टिप्पणियाँ

  1. मार्मिक संस्मरण। अक्सर ऐसे ही होता है। धन-दौलत के मामले में मां बाप को पक्षपातपूर्ण रवैया नहीं अपनाना चाहिए। बच्चे भी आजकल काफी स्वार्थी हो गए हैं। शायद यही कारण है कई बार मां बाप बच्चों के साथ रहने के बजाए ओल्ड एज होम में रहना पसंद करते हैं।

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    1. सत्य कहा आपने विकास जी,पता है ये द्वेष के बीज बचपन से ही जाने अनजाने मां-बाप अपनी संतानों के मन में बो देते हैं। तुलनात्मक दृष्टिकोण, पक्षपात, उपेक्षा जैसी छोटी-छोटी बातें कब विषवृक्ष बन जाती हैं, उन्हें स्वयं नहीं पता चलता और बच्चों को हमेशा बच्चा मानकर चलना और अनावश्यक रूप से उनके जीवन में हस्तक्षेप करना भी इसका कारण है।बाकी फिर समय जैसा हो संतान से ज्यादा अपेक्षा ही हमेशा दुख का कारक होती है।आप ब्लॉग पर आए।रचना के मर्म को समझा।इसके लिए आपका हृदय तल से आभार सादर।

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  2. आपकी कथा भी वास्तविकता के निकट है तथा विकास जी की टिप्पणी के उत्तर में व्यक्त आपके विचार भी तार्किक हैं. संतानों के पालन-पोषण में माता-पिता को इतनी सतर्कता तो बरतनी ही चाहिए जिससे वे संस्कारी, स्नेही एवं संवेदनशील बनें न कि स्वार्थी एवं संकीर्णमना. उनके चारित्रिक विकास हेतु प्रथम उत्तरदायित्व तो उन्हीं का है.

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    1. सहृदय आभार आदरणीय आपका
      आपके विचारों से सहमत हूं।जब सुनती हूं या देखती हूं तो मुझे यही कारण समझ में आता है। अनावश्यक रूप से अपनी संतानों के गुण-दोषों का आकलन,बाहर और घर में उसकी तुलना,उसे सबसे अच्छा बनाने की कोशिश में माता-पिता जो दबाव बनाते हैं,वही बाद में द्वेष का कारक बन जाता है।आपको मेरा यह संस्मरण अच्छा लगा तो मेरा सृजन सार्थक हुआ।आपकी प्रतिक्रिया की मुझे सदैव प्रतीक्षा रहती है। पुनः आभार आपका सादर

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  3. सत्य एवं समसामयिक समस्या को उद्घाटित करती है आपकी रचना ।

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  4. आपने सही कहा सखी, संबंधों में दरार का बीजारोपण तो परवरिश के समय से ही हो जाती है बस दिखता पेड़ बनने के बाद है। बहुत ही सुन्दर कहानी 🙏

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    1. सहृदय आभार सखी सादर आपकी प्रतिक्रिया पाकर रचना सार्थक हुई

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  5. अच्छी कहानी !
    आपसी रिश्तों में खटास के लिए किसी हद तक दोनों पक्ष ज़िम्मेदार होते हैं.
    माँ अगर यह चाहती है कि उस पर आश्रित बेटी हमेशा उसकी चाकरी में लगी रहे, तो यह गलत है और अगर माँ-बाप पर आश्रित बेटी यह चाहती है कि माँ-बाप अपना सब कुछ उसी पर न्योछावर कर दें तो यह उस से भी ज़्यादा गलत है.

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    1. Gopesh Mohan Jaswal सहृदय आभार आदरणीय स्वार्थ किसी भी रुप में किसी भी रिश्ते की नींव हिला सकता है।यह सब मैंने देखा और उसके आगे का घटनाक्रम भी देख रही हूँ।
      रिश्ते ऐसे भी होते हैं, देख कर आश्चर्य भी होता है और दुख भी कि धन सबको कितना स्वार्थी बना देता है।

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