नीरस रंगहीन से रिश्ते
अपने पन की बातें करते
ऊपर से दिखते जो बाँके
सुख के साथी बनकर बैठे
बोझ समझ रिश्तों को हाँके।
तरुवर तकते आज देहरी
ठूँठ बने हैं स्वामी जिसके
आँखों में सावन भादों है
प्रेम कुएँ सब प्यासे सिसके
चिथड़ा-चिथड़ा होता जीवन
कौन कभी भरता है टाँके।।
अधरों पर आते-आते ही
चीख सदा घुट कर रह जाती
अपने-अपने आसमान में
कितनी बातें शोर मचाती
रूठे जब प्रतिबिंब स्वयं के
कष्ट अलग से दर्पण झाँके।।
उजड़े-उजड़े मधुवन सारे
पुष्प झरें खिलने से पहले
काँटे अपना शीश उठाएँ
जिए वही जो ये सब सहले
नीरस रंगहीन से रिश्ते
मौन रखें पर सब है ढाँके।।
अभिलाषा चौहान
बेहतरीन।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार शिवम जी 🙏🙏 सादर
हटाएंवाह!प्रिय सखी ,क्या बात है ,लाजवाब सृजन ।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी 🙏🌹 सादर
हटाएंबहुत बहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏🙏 सादर
हटाएंरिश्तों को बाखूबी टटोला है आपने ...
जवाब देंहटाएंगहरी याचना ...
सहृदय आभार आदरणीय 🙏🌹 सादर
हटाएंबहुत सुन्दर अभिलाषा जी !
जवाब देंहटाएंदिल को छू लेने वाली लेकिन थोड़ा उदास करने वाली यथार्थवादी कविता !
सहृदय आभार आदरणीय 🙏🙏 सादर
हटाएंतरुवर तकते आज देहरी
जवाब देंहटाएंठूँठ बने हैं स्वामी जिसके
आँखों में सावन भादों है
प्रेम कुएँ सब प्यासे सिसके
चिथड़ा-चिथड़ा होता जीवन
कौन कभी भरता है टाँके।।
आज के रिश्तों का कटु सत्य बयां करता बहुत ही लाजवाब नवगीत।
सहृदय आभार सखी 🙏🌹 सादर
हटाएंदिल को छू जाने वाली अत्यंत मार्मिक रचना!
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी 🙏🌹 सादर
हटाएंरूठे जब प्रतिबिंब स्वयं के
जवाब देंहटाएंकष्ट अलग से दर्पण झाँके।।---सुंदर सृजन...।
सहृदय आभार आदरणीय 🙏🌹 सादर
हटाएंसुंदर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी 🙏🌹 सादर
हटाएंतरुवर तकते आज देहरी
जवाब देंहटाएंठूँठ बने हैं स्वामी जिसके
आँखों में सावन भादों है
प्रेम कुएँ सब प्यासे सिसके
मार्मिक सृजन सखी ...
सहृदय आभार सखी 🙏🌹 सादर
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏🙏
हटाएंअधरों पर आते-आते ही
जवाब देंहटाएंचीख सदा घुट कर रह जाती
अपने-अपने आसमान में
कितनी बातें शोर मचाती
रूठे जब प्रतिबिंब स्वयं के
कष्ट अलग से दर्पण झाँके।।
सुन्दर सृजन....
सहृदय आभार विकास जी🙏🏼सादर
हटाएंवाह!बहुत ही सुंदर नवगीत दी।
जवाब देंहटाएंसादर
सहृदय आभार सखी 🙏🌹 सादर
हटाएंसहृदय आभार 🙏🙏 सादर
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी 🙏🌹 सादर
जवाब देंहटाएं"...
जवाब देंहटाएंअपने पन की बातें करते
ऊपर से दिखते जो बाँके
सुख के साथी बनकर बैठे
बोझ समझ रिश्तों को हाँके।
..."
.................ऐसे साथी हमारे आसपास बहुत होते है।
"...
रूठे जब प्रतिबिंब स्वयं के
कष्ट अलग से दर्पण झाँके।।
..."
.................अहा! क्या बात है। अंतर्मन की गहराई लिख दी आपने।
"...
जिए वही जो ये सब सहले
नीरस रंगहीन से रिश्ते
..."
....................बिलकुल सही। यह हमे जीवन के अनुभवों से बखूबी सिख लेते हैं।
वाकई आपने बहुत ही गहराई से विश्लेषण करके इस रचना को लिखा है। हर एक पंक्ति जीवन के कटु सत्य को लपेटे हुयी है। बेहतरीन रचना है।
कितनों के अंतर्मन की वेदना को आपने वाणी दे दी, कटु सत्यवको मुखर कार्तिव्रचना ।
जवाब देंहटाएं