अंतहीन धूप

वे बुझाने आग
पेट की...?
तोड़ते पत्थर,
ढोते गारा,
हल चलाते,
बहाते पसीेना,
करते मजदूरी,
कि.....,
आ जाए जीवन में
खुशियों की छांव
मिले छुटकारा...?
इस कड़ी धूप से
जो जलाती है...!
बाहर-भीतर,
और भस्म कर देती है,
खुशियां सारी....!!
रह जाती है बाकी बस
तपती धूप...!!
अंतस को भेदती,
अंतहीन धूप...
जिसमें सिमट जाता है,
उनका पूरा जीवन...?

अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक

टिप्पणियाँ

  1. जीवन मजबूरी का ही नाम है पर कई बात हिम्मत से इसको जिया जा सकता है ...
    अच्छी रचना है ...

    जवाब देंहटाएं
  2. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार(२३-०५-२०२०) को शब्द-सृजन- २२ "मज़दूर/ मजूर /श्रमिक/श्रमजीवी" (चर्चा अंक-३७११) पर भी होगी।

    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    ….
    अनीता सैनी

    जवाब देंहटाएं
  3. यथार्थ और मार्मिक सृजन सखी ,सादर नमन

    जवाब देंहटाएं
  4. सही कहा संघर्ष मय जीवन में और बचता ही क्या है...
    बहुत ही हृदयस्पर्शी मार्मिक सृजन।

    जवाब देंहटाएं

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