शून्य सारी भावनाएँ
नयन निर्झर शुष्क से, शून्य सारी भावनाएँ। रिक्त जीवन शेष बाकी, मिल रही हैं यातनाएँ। हे पथिक !सुन लो समय की,माँग अब कहती यही है, क्षीण क्षणभंगुर जगत की,सोच बदलो तो सही है। कर्म कर्तव्य जान अपना,सार वेदों का यही है, पंथ पर कंटक चुभे तो,वेदना अंतर बही है। कल्पना कुसुमित हुई जब, जागती बस कामनाएँ। रिक्त जीवन शेष बाकी, भोगते हो यातनाएँ। कामिनी सी कल्पना को,सत्य में साकार करना, दीन दुर्बल दुर्गुणों को,शीश पर अपने न धरना। जीतना है ये समर तो,शौर्य साहस मन बसे, सत्य शांति और करुणा,प्रेम ही अंतर बसे। तुम जगत आधार बिंदु, तोड़ दो सब वर्जनाएँ। नियति को बदलो, उठो, क्यों सहो अवहेलनाएँ? धूल धुसरित स्वप्न सारे,अस्त होते सूर्य से, आग अंतर में जलाओ,फूँक कर इस तूर्य से। मृग मरीचिका से भ्रमित हो,राह से भटको नहीं, अटल संकल्प ले चलो अब,शीश यूँ पटको नहीं। राह रोकेंगी विपत्ति, चमकती ये चंचलाएँ। मौन मन मंथन करो, बदलेंगी ये धारणाएँ। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'