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शून्य सारी भावनाएँ

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नयन निर्झर शुष्क से, शून्य सारी भावनाएँ। रिक्त जीवन शेष बाकी, मिल रही हैं यातनाएँ। हे पथिक !सुन लो समय की,माँग अब कहती यही है, क्षीण क्षणभंगुर जगत की,सोच बदलो तो सही है। कर्म कर्तव्य जान अपना,सार वेदों का यही है, पंथ पर कंटक चुभे तो,वेदना अंतर बही है। कल्पना कुसुमित हुई जब, जागती बस कामनाएँ। रिक्त जीवन शेष बाकी, भोगते हो यातनाएँ। कामिनी सी कल्पना को,सत्य में साकार करना, दीन दुर्बल दुर्गुणों को,शीश पर अपने न धरना। जीतना है ये समर तो,शौर्य साहस मन बसे, सत्य शांति और करुणा,प्रेम ही अंतर बसे। तुम जगत आधार बिंदु, तोड़ दो सब वर्जनाएँ। नियति को बदलो, उठो, क्यों सहो अवहेलनाएँ? धूल धुसरित स्वप्न सारे,अस्त होते सूर्य से, आग अंतर में जलाओ,फूँक कर इस तूर्य से। मृग मरीचिका से भ्रमित हो,राह से भटको नहीं, अटल संकल्प ले चलो अब,शीश यूँ पटको नहीं। राह रोकेंगी विपत्ति, चमकती ये चंचलाएँ। मौन मन मंथन करो, बदलेंगी ये धारणाएँ। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'

होगा सुन तेरा संहार

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रौद्र रूप में धरती माता, प्रकृति प्रदूषित खाए खार। दर्प तुम्हारा सिर चढ़ बोले देखी नहीं समय की धार।। नद-नाले नदियाँ पर्वत सब, दिन-दिन खोते अपना रूप। ताल-बावड़ी पोखर झरने, सूख चले अब सारे कूप। वन-उपवन ये बाग-बगीचे, उजड़े सारे पक्षी नीड़। स्वार्थ सदा सिर ऊपर रखते, सुख साधन की चाहो भीड़।। दुर्भिक्षों को देते न्योता, बिन न्योते आए सैलाब। अपने सुख को आग लगाते, जल जाते हैं सारे दाव।। अपनी करनी पार उतरनी, माँग रहे क्यों जीवन भीख। बादल फटता धरती डोले, क्या तुमने उससे ली सीख?? विष की बेलें बोने वाले, ईश्वर को क्यों जाते भूल? उसने फूल भरे झोली में, स्वयं बिछाए तुमने शूल।। तिनके सा अस्तित्व तुम्हारा, लेकर उड़ता है तूफान। मैं मेरा बस करते करते सच से क्यों रहते अनजान?? पंचभूत को दूषित करके, बन बैठे हो बड़े महान। पोथी पढ़ पढ़ ज्ञानी बनते कभी न पाया सच्चा ज्ञान।। भौतिकता की चकाचौंध में, जीवन रस से रहते दूर। थोड़ा सा भी संकट आया, होते सारे सपने चूर।। अपना दोष मढ़ो औरों पर, अपने अंदर झाँके कौन। कर्तव्यों से पल्ला झाड़ो, कैसे हो जाते हो मौन।। पृथ्वी के वैभव को छीना, करते हो बस खुद से प्यार। भूल गए तुम ह

अवसर देखें करते घात

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 आल्हा छंद सपने सुंदर दिखे सलोने, कब पूरे होते हर बार। दाल कभी जो दिखती थाली, तो रोटी की मारामार।। मुट्ठी में पैसे आते बस, झोली भर कर ले सरकार। जीवन की आपाधापी में, खुशियों की होती है हार।। खाली बर्तन खाली मन है, चिंता मुफ्त मिले हर बार। रोगों से घिरते लोगों की नैया कैसे लगती पार।। घर बिकता बिकते हैं सपने, लुट जाता सारा संसार। वादों पर बस जीवन चलता, जीना दोधारी तलवार।। दो पाटों में पिसे आदमी, छोड़े बैठा जीवन आस। भ्रष्ट बुनें मकड़ी सा जाला, उसकी कैसे बुझती प्यास।। सुख-सुविधा की बातें करते, कानों तक कब पहुँचे बात माना  जिनको अपना हमने अवसर देखे करते घात। अभिलाषा चौहान

सब धूल ही तो है

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घर में यहाँ-वहाँ बार-बार ज़मती धूल खींचती है अपनी ओर जिसके पीछे छिपा सच पल में खोल देता मेरी आँखें सब धूल ही तो है ये चमकती दुनिया  मात्र भ्रम है हाँ ये चमक जो स्वर्ण मृग है जिसने भ्रमित किया वैदेही को परिणाम देखा सबने धूल में मिला अहंकार धूल में खिला फूल न बन सका शोभा  राजमहल की असीमित अनंत दुख समेटे ये धूल पल में बनाती है इतिहास अनेक उनींदे स्वप्न  देखे दम तोड़ते जब हमारे भाग्य विधाता बन चंद मुट्ठी भर लोग आँखों में झोंक देते धूल हमने ही की भूल ईश्वर के उपहार बाग-बगीचे वन सबको मिलाया धूल में धूल ही धूल जो सनातन शाश्वत सत्य अंतरिक्ष भी असहाय सा इस धूल के आगे खाँसते खखारते रुग्ण शरीर चंद साँसों के लिए लड़ते इस धूल से दिन-दिन पाँव पसारती ये धूल लील जाएगी पृथ्वी को जिसको हमने दिया है बसेरा। हम ढूँढते रहेंगे  ग्रहों पर जीवन....?? अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'

मानवता है अडिग खड़ी

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मौत नाचती सिर के ऊपर गिद्धों की है आँख गड़ी साँसों पर सिक्कों के पहरे आई कैसी कठिन घड़ी। मानव वेश धरे अब दानव कैसे इनसे पार पड़े ठगी लूट गोरखधंधों के कितने अब बाजार खड़े फिर भी लड़ता जीवन रण है मानवता है अडिग खड़ी। सदियों से संघर्ष चला है जीती है बस सच्चाई काल भले विपरीत चले पर घड़ियाँ सुख की भी आई चक्र समय का चलता रहता जुड़ती जाती कड़ी-कड़ी। राह कठिन कंटक हैं पग में मौसम से सुर बदले हैं बढ़ते जाते अपनी धुन में दुनिया कहती पगले हैं दीप प्राण का जलता रहता तूफानों की लगे झड़ी। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'

सवैया छंद प्रवाह

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सवैया छंद सीखते हुए कुछ पदों का सृजन  ।                सुमुखि सवैया 121 121 121 12,1 121 121 121 12 1-सिय वियोग चले रघुवीर तुणीर लिए, मन में सिय का बस़ ध्यान रहे। अनेक विचार उठे मन में,हर आहट वे पहचान रहे। प्रयास करें पर कौन सुने,वन निर्जन से सुनसान रहे। दिखे सब सून प्रसून दुखी,मन पीर वियोग निशान रहे। ========================= 2-राम वन गमन चले रघुवीर सुवीर बडे,मुख चंद्र समान लगे जिनका। सहोदर संग प्रवीण दिखे,बस रूप अनूप लगे उनका। सजे पुर बाग प्रदीप जले,मन मोहित मोद लगे छनका। कहें सब आज तुणीर धरे, ऋषि वेश सुवेश लगे इनका। =========================               गंगोदक सवैया गंगोदक सवैया को लक्षी सवैया भी कहा जाता है। गंगोदक या लक्षी सवैया आठ रगणों से छन्द बनता है। केशव, दास, द्विजदत्त द्विजेन्द्र ने इसका प्रयोग किया है। दास ने इसका नाम 'लक्षी' दिया है, 'केशव' ने 'मत्तमातंगलीलाकर'। 212 212 212 212, 212 212 212 212 1-गोपी विरह देखती राह हैं गोपियाँ राधिका,श्याम भूले नहीं याद आते रहे। आज सूनी पड़ी गाँव की ये गली,पीर देखो बढ़ी बात कैसे कहे। प्रीत झूठी पड़ी मीत ऐसा मिला

सवैया छंद- कृष्ण प्रेम

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1.भक्त की प्रार्थना माधव मोहन श्याम सदा तुम,भक्तन के बनके रखवारे। हे मुरलीधर प्राण बसे तुम,जीवन के बनके उजियारे। दास कहे मनकी सुनलो अब,मोह फँसे हम हैं दुखियारे। मीन बिना जल के तड़पे अब,घेर रहे तम बादल कारे। 2.कृष्ण सौंदर्य पट पीत सजे वनमाल गले,अधरों पर चंचल हास्य सखी। सिर मोर पखा लड़ियाँ लटके,मुरली कर में अभिराम दिखी। मन मोह लिया सुध भूल गई,नयना तकते अविराम सखी। यमुना तट धेनु चरावत वे,छवि नैनन से दिन-रात लखी। अभिलाषा चौहान

राम वनवास

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सवैया छंद राम चले वनवास सखी,नयना सबके नदियाँ बहती। लोचन पंकज से दिखते,सुन बात सभी सखियाँ कहती। लक्ष्मन संग सिया चलती,मुनि वेश धरे महलों रहती। आज अनाथ हुए सब हैं,यह शूल चुभे बस हैं सहती। अभिलाषा चौहान

नीरस रंगहीन से रिश्ते

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अपने पन की बातें करते ऊपर से दिखते जो बाँके सुख के साथी बनकर बैठे बोझ समझ रिश्तों को हाँके। तरुवर तकते आज देहरी ठूँठ बने हैं स्वामी जिसके आँखों में सावन भादों है प्रेम कुएँ सब प्यासे सिसके चिथड़ा-चिथड़ा होता जीवन कौन कभी भरता है टाँके।। अधरों पर आते-आते ही चीख सदा घुट कर रह जाती अपने-अपने आसमान में कितनी बातें शोर मचाती रूठे जब प्रतिबिंब स्वयं के कष्ट अलग से दर्पण झाँके।। उजड़े-उजड़े मधुवन सारे पुष्प झरें खिलने से पहले काँटे अपना शीश उठाएँ जिए वही जो ये सब सहले नीरस रंगहीन से रिश्ते  मौन रखें पर सब है ढाँके।। अभिलाषा चौहान

मन की बात

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आल्हा छंद में एक प्रयास ________________________ जीवन में संग्राम छिड़ा है, दुख से जलते हैं दिन-रात। धन का मूल्य चढ़ा सिर ऊपर, रिश्ते-नाते खाते मात।। हाल बुरा देखो जनता का, बढ़ती कीमत है बेहाल। नेता रंग बदलते ऐसे, जैसे गिरगिट चलता चाल।। मन में रावण पलता सबके, ऊपर से बनते हैं राम। सदियाँ कितनी बीत गई हैं, कब पूरे होते हैं काम। धर्म सभी का बनता धंधा, मन में उनके पलता खोट। घाव पुराने भरते कैसे, उनपर पड़ती रहती चोट।। सोते रहते सोने वाले, कैसे बदलेंगे हालात। आँखों पर सब पर्दा डाले कब सुनते हैं मन की बात।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

प्रीत बनी है कारा

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"मीरा की व्यथा या हर वियोगिनी की पीड़ा" हृदय-भाव अब क्रंदन करते प्रीत बनी अब कारा तटबंधों को तोड़ चुकी है आँसू की ये धारा। पाषाणी प्रतिमा बन बैठे व्यथा न समझी मेरी नैनों के पट अब तो खोलो हो जाएगी देरी तड़प रही ज्यों जल बिन मछली कैसे पाऊँ किनारा।। सागर की लहरों सा उमड़े ज्वार प्रेम का साजन बनी चकोरी तुम को ताकूँ निठुर बने मनभावन तेरी जोगन बन‌ बैठी हूँ तुम पे हिय है हारा।। प्यासी हूँ मैं जनम-जनम की नित बरसे है सावन अंगारों पर लोट रही हूँ हूँ मैं बड़ी अभागन तेरी मूरत जीवन मेरा सौंप दिया निज सारा।। अभिलाषा चौहान

बदलेगी ये समय की धारा

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बीत जाएँगी ये भी घड़ियाँ डर-डर के मत जीना हो गहन तिमिर की भले हो बेला अमृत आस का पीना हो। छट जाएँगे बादल काले  सुख का सूरज निकलेगा धरती के आँगन में फिर से हर्ष का पंछी चहकेगा अडिग अविचल हो करो सामना निज विश्वास न झीना हो।। मानवता पर संकट आया मिलकर दूर भगाना है मन मंदिर के बुझे दीप को फिर से आज जलाना है जीवन पुष्पों सा महकेगा दुख कंटक जब बीना हो।। बदलेगी ये समय की धारा, काल पाश ढीला होगा। बरसेगी फिर से खुशियाँ भी दुख का मुख पीला होगा। चल उठ जा और जी ले जीवन गरल घूँट क्यों पीना हो।। अभिलाषा चौहान

ये तो सोचा न था...!!

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मास्क  दो गज की दूरी अपनों से दूर रहने की मजबूरी कैद में किलकारी मित्रों की यारी ऐसे भी होंगे दिन ये तो सोचा न था...!! पिंजरों में कैद  पंछी की तरह फड़फड़ाते छिन चुकी स्वच्छंदता का शोक मनाते अवसाद में डूबे अपनों के जाने का मातम मनायेंगे ये तो सोचा न था...!! चार कंधों की सवारी होगी न नसीब कोई अपना रहेगा न करीब दमघोटूँ बीमारी जिंदगी जिससे हारी डर और बेरोजगारी ये तो सोचा न था...!! अदृश्य दानव से उगेगी रक्तबीजों की फसल मुर्दों का भी होगा तोल घुटती चीखों की आवाज में खनकेंगे सिक्को के बोल पैसे से साँसों का लगेगा मोल हर रिश्ते की खुलेगी पोल कोई नहीं बोलेगा मीठे बोल ये तो सोचा न था...!! कृष्ण पक्ष सा जीवन चक्र उगाएगा चाँद या आएगी अमावस सूखे आँसुओं के समंदर में उठेगी टीस हर बात की लगेगी फीस ये तो सोचा न था...!! अभिलाषा चौहान

क्यों इतने हम मजबूर हुए

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अपने अपनों से दूर हुए सपने सारे फिर चूर हुए विपदा कैसी ये आन पड़ी क्यों इतने हम मजबूर हुए। साँसों पे तलवारें लटकी है आँखें धड़कन पर अटकी है हम रोएँ या फिर सिर पटके जीवन की राहें  भटकी है। आँखों के आँसू सूख चले मन में डर का बस भाव पले प्रभु पत्थर के बनकर बैठे जीवन जलता अंगार तले। कैसे मन में कोई धीर धरे ये घाव सदा रहते हैं हरे इक सूनापन इक सन्नाटा खुशियों के कैसे फूल झरें। पर धीरज मन में रख लेना साहस को हार नहीं देना ये समय गुजर ही जाएगा जीवन तो चलता ही है ना। हम जीतेंगे फिर ये बाजी कर लो बस अपना मन राजी हिम्मत से बढ़ना सब आगे ये काल बनेगा फिर माजी। माजी-अतीत, भूतकाल अभिलाषा चौहान

काल कठिन है क्रूर

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कैसी आई आपदा अपने होते दूर बैठ अकेला सोचता कितने है मजबूर। ढेर शवों के लग रहे विवश हुआ विज्ञान कैसे रोकें त्रासदी टूटा सब अभिमान सन्नाटा हिय चीरता सपने सारे चूर।। जीवन ऐसा अब लगे जैसे कारागार छाया अँधियारा घना कैसे होंगे पार छुपकर बैठे हैं कहीं बनते थे जो शूर।। चिंतन करते मैं थका किसके थे ये पाप जिसका दंड भोग रहे कितने ही निष्पाप साहस पल-पल टूटता काल कठिन है क्रूर।। अभिलाषा चौहान

चंद साँसों के लिए

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  चंद साँसों के लिए तड़पते लोग कैसे जीतेंगे ये जंग जब लाशों के ढेर पर लालची मुर्दे बनाते सपनों के महल सिक्कों की खनक में डूबे कर रहे सौदेबाजी जुगाड़ की प्रवृति कालाबाजारी जमाखोरी में लिप्त ये भ्रष्टाचारी मुर्दे भारी है इन साँसों पर साँसों के व्यापारी जोंक के समान चूसते रक्त मानवता का हतप्रभ, जड़,असहाय से अपनों के लिए गिड़गिड़ाते लोग इन मुर्दों से माँगते भीख या बेचकर खुद को तिल-तिल मर रहे ताकि मिल जाए चंद साँसें नाउम्मीद होती मानवता में साँस और आस को सहारा देते कुछ लोग ज़िंदा है अभी जो लड़ रहे हैं इन मुर्दों से ताकि अभिशापित मानवता जीत जाए जंग....! अभिलाषा चौहान

बस इतनी सी बात

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मौत से पहले मौत की आहट सुन काँपती रूहें अधमरी गिरती टूटती साँसे खौफ से काले पड़े चेहरे पर पथराई फटी आँखें देखती मंजर अपने जनाजे का जिससे दूर है काँधा गैरों सी जिंदगी हमनवा मौत की बन खीसें निपोरती पल्ला झाड़कर दूर खड़ी अगूँठा दिखाती आदमी से दूर होता आदमी आँखों में सूखे सागर को पीता हुआ धरती और आसमान के बीच सूखे तिनके सा बस जल रहा है अपने न होने का  धुधँला अहसास चौतरफा मार अव्यवस्था में गेंद सा न जाने किस-किस के हाथों में उछलता करता पूरा है से था बनने का सफर बस इतनी सी बात ??

लेती ज्यूँ आकार प्रिये

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लोहा गर्म पिघलता जैसे ठंड़ा नव आकार लिये स्वर्ण तपे कुंदन बन दमके रमणी ज्यूँ श्रृंगार किये। भाव तरंगित होते हिय में उड़े कल्पना कानन में शब्द-शब्द पुष्पों से महके अर्थ प्राण उर आनन में चली चेतना चुनने मोती सीपी ने मुख खोल दिये स्वर्ण तपे कुंदन बन दमके रमणी नव श्रृंगार किये लोहा गर्म---------------।। मन तुरंग सा दौड़ रहा है जग के कोने-कोने में देख दशा अति अकुलाता है कविता लगता बोने में चाक चले जब गीली मिट्टी लेती ज्यूँ आकार प्रिये स्वर्ण तपे कुंदन बन दमके रमणी ज्यूँ श्रृंगार किये। लोहा गर्म-----------------।। हिय अंतस में आस जगाए राह नई यूँ दिखलाती सुंदर-सुंदर लगता जीवन सपनों की पढ़ता पाती ताना-बाना जोड़-जोड़ कर जगजीवन आधार दिए। स्वर्ण तपे कुंदन बन दमके रमणी ज्यूँ श्रृंगार किये। लोहा गर्म----------------।। अभिलाषा चौहान

सवैया छंद (गोपी व्यथा)

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सवैया छंद 1. मुरली बजती सुन माधव की, सखियाँ यमुना तट दौड़ चली। अखियाँ तरसे हरि दर्शन को, मन में पलती इक आस भली। मन में बसते बस श्याम सखी,उनसे मिलना यह चाह पली। दिन-रात बसे छवि नैनन में ,उनसे अनुराग विराग जली। 2. भँवरे सम श्याम सखी लगते, रस जीवन का सब लूट गए। जबसे हमको वह छोड़ दिए ,सुख तो हमसे सब छूट गए। लिखदीं पतियाँ उनको कितनी, कितने सपने अब टूट गए। लगता अब जीवन शून्य हुआ, मुझसे जबसे वह रूठ गए। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

जैसे सब कुछ डोल रहा था

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नेत्र प्रवाहित नदिया अविरल नेह हृदय कुछ तोल रहा था तिनका-तिनका दुख में मेरे जैसे सब कुछ डोल रहा था। अम्बर पर बदली छाई थी दुख की गठरी लादे भागे नयनों से सावन बरसे था विरह आग ने गोले दागे प्यासा-प्यासा जीवन मेरा चातक बन कर बोल रहा था। कस्तूरी को वन-वन ढूँढे, पागल मृग सा मेरा मन था। मृगतृष्णा में उलझा-उलझा सड़ता गलता मेरा तन था खोया-खोया जीवन मेरा जीवन-धन को ढूँढ रहा था।। धरती से लेकर अंबर तक सबको अपना मान लिया था सच्चाई से मुख मोड़ा था दुख को गठरी बाँध लिया था, थोड़ा-थोड़ा सुख पाया वह जीवन में विष घोल रहा था।। अभिलाषा चौहान

टूट रहे अनुबंध अनोखे

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सीप गर्भ में मोती पलता भाव हृदय में पलते वैसे घिरता है घनघोर अँधेरा लड़ता जुगनू उससे जैसे।। खारा सागर पिए वेदना लहरों में मचती नित हल-चल उमड़-घुमड़ के बादल आए प्यास धरा की जागे पल-पल व्यथित हृदय तटबंध तोड़ता नयना नीर सरोवर ऐसे घिरता है घनघोर अँधेरा लड़ता जुगनू उससे जैसे।। एक मिलन पूरा होता है विरही बनकर दूजा डोले पाषाणों ने चीख-चीख कर राज हृदय के कितने बोले पर्वत का आँसू है झरना नदी हर्ष की गाथा कैसे घिरता है घनघोर अँधेरा लड़ता जुगनू उससे जैसे।। टूट रहे अनुबंध अनोखे जीवन को जो सींच रहे थे काँटों की शैया पर लेटे अपना ही इतिहास कहे थे आस डोर हाथों से छूटे चैन जिया का खोता तैसे घिरता है घनघोर अँधेरा लड़ता जुगनू उससे जैसे।। अभिलाषा चौहान

उधड़ी हुई सी जिंदगी

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उधड़ी हुई सी जिंदगी  पैंबंद से ढक गई मुस्कुराहटों पर पर्तें उदासी की रुक गई। आँखों में सपनों ने जब डाला न बसेरा उजड़े हुए चमन में अब होगा न सवेरा जलते हुए इन गमों से देखो उम्र पक गई।। कोशिशें भी हारकर यूँ मुंह फेर कर बैठीं खुशियाँ गुरूर करती सी रहती हैं बस ऐंठी मरम्मत करें अब कितनी ये मशीन थक गई।। बदली नहीं हैं सूरतें बुनियाद है बोलती  ये दुनिया कैसी बनिया तराजू में तोलती वीराना ही पसरा था नजर जहाँ तलक गई।। अभिलाषा चौहान

चिंगारी कब है दहकी

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टूटे टूटे सपने मन के आस चिरैया कब चहकी भूख जलाती सदा रुलाती चाल जीव की फिर बहकी। बात बड़ी सब लगती झूठी बर्तन खाली बजते जब हाड़ तोड़ते कंकालों के प्राण पीर से सजते तब हाथ जोड़ते शीश पटकते पत्थर सुनते कब सिसकी।। सूर्य उगा कब उनके आँगन चाँद चला चकमा देकर मेघ हथौड़े बरसाते हैं पवन चली चाबुक लेकर ऋतुएं बदली बीती घडियाँ फुलवारी भी कब महकी।। फटी गूदड़ी तन पर छाले बंधुआ नियति के बनते काल बना बैठा है धुनिया सदा रहा उनको धुनते जीवित लाशों के अंदर पर चिंगारी कब है दहकी।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

सुन्दर सपना सलोना सा

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नैनों के दर्पण में झूले सुंदर सपन सलोना सा सुख के अंकुर लगे फूटने दुख भी लगता बौना सा।। भावों की उर्वरता बढ़ती देती मन को आस नयी रोप रहा है खुशहाली को बीत गई सो बात गयी हिय आँगन में उछल रहा है हर्ष किसी मृगछौना सा।। स्वेद-लहू से सींच रहा है जीवन की फुलवारी को शीश खड़े संकट कितने सदा बचाता बाड़ी को माटी की ममता में पलता नभ भी लगे बिछौना सा।। बीज रोपता संस्कारों के दिया प्रेम का पानी वो भावी को मुट्ठी में जकड़े श्रम की लिखे कहानी जो और धरा के आँचल में फिर बिखर रहा है सोना सा।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

गूँजते ये गीत कैसे

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चंचला चमकी चपल जब कौंध कर हिय में समाई। मेघ यादों के झरे तब नींद नयनों ने गँवाई। दृश्य जीवंत से हुए हैं पल चुभे फिर शूल जैसे पीर आँधी सी उठी है उड़ रही ये धूल कैसे चित्र धुँधले साफ होते धुंध जब सारी हटाई। साथ बीते पल सलोने आ गए अतिथि के जैसे प्राण में मधुमास छाया गूँजते ये गीत कैसे देख अपना बचपना फिर कोंपलें फिर लहलहाई। काल ने भी शस्त्र डाले याद से वह हार जाए जीतता वो पल सदा है आए और बीत जाए है धरोहर ये मनुज की मृत्यु भी कब छीन पाई।। अभिलाषा चौहान

कुछ मन की

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कल विश्व गुर्दा दिवस है।इसका उद्देश्य है लोगों में गुर्दे और गुर्दे से संबंधित बीमारियों को लेकर जागरूकता पैदा करना। ईश्वर न करे कभी किसी को गुर्दे से संबंधित बीमारियों का सामना करना पड़े और यदि ऐसा हो जाए तो अपनों के जीवन को बचाने के लिए हमें गुर्दा प्रत्यारोपण से पीछे नहीं हटना चाहिए।आज के इस युग में यह तकनीक लोगों जीवन दान दे रही है,कृपया भय त्यागकर जीवन रक्षा के इस पुनीत कार्य को आगे बढ़ाएं और लोगों को जागरूक करें।मुझे जब पता चला कि मेरे पति की जीवन रक्षा अब गुर्दा प्रत्यारोपण से ही सकती है तो मैंने गुर्दा दान करना ही श्रेयस्कर समझा।यह ईश्वर की अनुकम्पा ही है कि शायद उसने मुझे इसीलिए बनाया था।सच मानिए एक माह होने को आ रहा है और मुझे कोई परेशानी नहीं है। यह सब यहाँ लिखने का मात्र एक ही उद्देश्य है कि अधिक से अधिक लोगों तक यह बात पहुँचे ताकि लोग जागरूक हो, नीम-हकीम के फेर में पड़कर जीवन से खिलवाड़ न करें और अपनों को और गैरों को जीवन दान देने के लिए आगे आएँ।

सबसे होंगे जो न्यारे

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भरूँ कुलाँचे हिरनी जैसी तोड़ चलूँ बँधन सारे अपना ही प्रतिमान बनूँ अब तोड़ गगन के सब तारे।। कोमल हूँ कमजोर नहीं जो लिख न सकूँ इतिहास नया पंख मिलें हैं उड़ने को जब नहीं चाहिए कभी दया ऊँचे पर्वत गहरी खाई संकल्पों से सब हारे। रात अँधेरी गहरी काली रोक सके कब राहों को चमक रही जुगनू सी आशा फूल खिलें हैं चाहों के लीक पीटते रहें यहाँ सब समता के देते नारे।। नदी बँध को तोड़ बहे ज्यूँ पवन रुके न रोके से कदमों को कब रोक सकेगा कोई अब यूँ धोखे से लक्ष्य चुनूँ नव राह गढूँ अब सबसे जो होंगे न्यारे।। अभिलाषा चौहान

पीड़ित होते हैं प्राण

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युगों-युगों से सहते-सहते, बनती नारी पाषाण। पीते-पीते पीड़ा का घट, पीड़ित होते हैं प्राण। लेकर भार सृजन का जन्मी कहते धुरी जीवन की पुरूषों के पहरे पग-पग पे बात सुनी नहीं मन की होते गए चीथड़े मन के लगते हिय पे जब बाण।। पुरूष बना सर्वस्व हमारा तो रंग जीवन आए साथ छूटता है जब उसका, सब बेरंग हो जाए सागर सा विचलित अंतर्मन, समझे जग बस चट्टान। साध-साध मन बनती साध्वी किसी ने कब ये जाना मार-मार कर इच्छाओं को हँसना और मुस्काना लक्ष्मण रेखाएँ साथ चली पर हुआ कभी कब प्राण। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

चाँदनी भी है सिसकती

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भावनाएँ मर चुकी हैं वेदना मन में हुलसती चाँद भी मद्धिम पड़ा है चाँदनी भी है सिसकती।। ये धरा उजड़ी हुई सी ठूँठ पर छाई उदासी मेघ रोते रात-दिन पर देखती बस नदी प्यासी फट रहा गिरि का हृदय भी नैन से पीड़ा बरसती।। बन रहा पाषाण सा क्यों क्यों रहे करुणा उपेक्षित ढो रहा है भार तन का क्या हृदय को चिर प्रतीक्षित मर चुके मन को सम्हाले क्या लहर उसमें लहरती।। प्राण का विचलित पतंगा ढूँढता लौ को भटकता हारता थकता नहीं पर शीश अपना है पटकता दीप का था गुल धुआँ भी टीस सी अंतस कसकती।। अभिलाषा चौहान

नेह कली मुरझाती है।

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विरह वेदना बदली बनकर हृदय गगन में छाती है प्रीत दामिनी सी मन में तब कड़क-कड़क गिर जाती है।। सूने से इन नयनों से जब पीड़ा छलके गगरी सी बुनती हूँ सपनों के जाले उलझी-उलझी मकड़ी सी रंग नहीं कोई जीवन में रजनी घिर कर आती है। प्रीत दामिनी सी मन में तब कड़क-कड़क गिर जाती है। विरह-------------------।। धूप समान सुलगता ये तन  भाव सुलगते अंगारे वनवासी सा प्रेम हुआ है गए साथ हैं सुख सारे स्मृतियों के कानन में जैसे हिरनी राह न पाती है। प्रीत दामिनी सी मन में तब कड़क-कड़क गिर जाती है। विरह------------------।। मंथन मन का करते-करते गरल हाथ में आया है पीकर प्यास बुझेगी कैसे हृदय बहुत घबराया है झोली भरकर कंटक पाए नेह कली मुरझाती है प्रीत दामिनी सी मन में तब कड़क-कड़क गिर जाती है। विरह--------------------।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

शून्य होते भाव सारे

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शून्य होते भाव सारे प्राण को कैसे जगाऊँ शब्द भी निश्चल पड़े हैं अर्थ से कब बाँध पाऊँ।। घोर छाई है निराशा लेखनी भी रो रही है आस की उजली किरण को ढूँढती सी वो कहीं है व्याकरण उलझा हुआ सा छंद कैसे छाँट लाऊँ।। यह अधूरा ज्ञान कैसा प्यास कैसी ये जगी है बिंब भूले राह अपनी बात कब ये रस पगी है लक्ष्य का संधान कर लूँ   नीड़ कविता का सजाऊँ।। नव प्रतीकों को गढ़े पर क्षीणता कब भेद पाए कल्पना मरती हुई सी जब नयन प्रज्ञा चुराए टूटती सी लय कहे अब हार को माथे लगाऊँ।। अभिलाषा चौहान

आ गए ऋतुराज फिर से

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आ गये ऋतुराज फिर से प्रीत पायल छनछनाए झूमती वसुधा प्रफुल्लित हाथ कंगन खनखनाए।। काननों में मोर नाचे कोंपले फिर लहलहाई फूलती सरसों बसंती हरितिमा ले अंगड़ाई आ गया मकरंद देखो राग कोयल ने सुनाए।। वृक्ष से लतिका लिपटकर हर्ष से जब झूम उठती ओस की बूँदें धरा पर तृण-तृण को चूम उठती फिर कली महकी वहाँ पर गीत भँवरा गुनगुनाए।। फूलते टेसू लगे यों दहकते हों आग से वन प्रेम लेता फिर हिलोरें तीर सा छोड़े जब मदन घुल उठा सौरभ पवन में गात सबके झनझनाए।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

अंबर का फटता सीना

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देख धरा की पीर भयंकर अंबर का फटता सीना प्यासी नदियों की आकुलता सागर का आँसू पीना।। तोड़ बही तटबंधों को जब धाराधर की ये धारा कृत्रिमता को रोंद रही फिर जीवन बंदी है कारा स्वार्थ बहे मिट्टी के जैसा हुआ अहम का पट झीना।। जल प्लावन सब तोड़ रूढियाँ धोता जग के पापों को मानवता फिर भोग रही है दानवता के शापों को बीच भँवर में डोले नैया अपना हक उसने छीना।। ढहते पर्वत लिखें कहानी मानव की मनमानी की मृत ठूँठों ने हँसी उड़ाई दिखे न चूनर धानी सी तैर रहे सपनों को पकड़े मरना सरल कठिन जीना।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

और कितना भागना है

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भाव मन के मर चुके हैं और कितना भागना है चित्त भय कंपित हुआ है और कितना साधना है।। मोह का जंजाल ऐसा जाल पंछी फड़फड़ाए काल का आघात कैसा प्राण जिसमें भड़भडाए सूखता हिय का सरोवर प्रेम किससे माँगना है।। झेलते लू के थपेड़े छाँव ढूँढे ठूँठ नीचे शूल पग को छेदते हैं देखते सब आँख मींचे ये छिदा तन बींध डाला और कितना बाँधना है।। बैठ कर नदिया किनारे प्यास से जब बिलबिलाए हाथ में बस रेत आई क्रोध से फिर तिलमिलाए लक्ष्य ओझल हो चला है और सागर लाँघना है।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

बँधी रीतियों में ये ललना

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बँधी रीतियों में ये ललना शीश भार सबका धरती दो-दो घर करती उजियारा पीर सदा सबकी हरती।। अधरों पर वह मौन बसाती शून्य बने सपने उसके अपने सपने बाँध पोटली देख छुपाकर वह सिसके भूल गई जीवन को जीना बस चूड़ी खन-खन करती।। दाँव लगाती जीवन अपना भार सृजन का लेती है आँचल में संसार बसाती कितना कुछ वह देती है पहन वर्जनाओं की चुनरी संयम से पग को धरती ।। अर्द्धविश्व की रही स्वामिनी पथ में कंटक ही पाए पल-पल सहती है उत्पीड़न और वेदना तड़पाए बनी बेडियाँ ये पायल हैं फिर भी छम-छम हैं करती।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

मूक हुई आवाजें

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चलें दोहरी चालें सत्ता फंदा नित कसती बेबस सी ये जनता दो पाटों में ही पिसती। तेल नौन सब फीके दाल दूर है थाली से फोड़ रहा है माथा जूझ रहा बदहाली से बढ़ा रेल का भाड़ा दिल्ली निर्धन पर हँसती।। आंखों के सब सपने हैं दूर गगन के तारे खाली खाली जीवन सब चिंताओं के मारे घुन सा लगता तन में ये भूख कील सी धँसती।। कठपुतली बनते सब आँख मूँद सच्चाई से मूक हुई आवाजें बढ़ती इस मँहगाई से जाल बुना मकड़ी सा खुशियाँ जिसमें हैं फँसती।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

बोलता है ये तिरंगा

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प्राण पण से जूझता नित वीर अर्पित कर जवानी शौर्य गाथा देख उसकी आज हमको है सुनानी।। बेड़ियों ने श्वांस जकड़ी चीख घुटती कह रही थी रक्त पानी बन गया जब पीर हर जन ने सही थी बोलता है ये तिरंगा फिर हुतात्मी सी कहानी।। आँख में अंगार धधका आग सीने में लगी जब हाथ में ले प्राण अपने शेर सा हुंकारता तब शत्रुओं को ही पड़ी थी बार-बार मुँह की खानी।। रंग बसंती मन लुभाए भाल पे रज है सुहाती देश है परिवार उनका देश उनकी देख थाती भारती की अस्मिता पे वार दी अपनी जवानी।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

ये भारत के वीर

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प्राण हथेली पे लिए चौकस रहते वीर गर्मी बर्षा शीत में होते नहीं अधीर। हर्षित मात वसुंधरा पाकर ऐसे रत्न अरिदल चकनाचूर हो करते ऐसे यत्न शौर्य शक्ति के पुंज ये जैसे गंगा नीर। शोभित है इनसे धरा चमकें बनकर सूर्य शेरों सी हुंकार से बजे विजय का तूर्य। त्याग समर्पण भाव से हरते जन की पीर। हिमगिरि की हों चोटियाँ या हो तपती रेत आएँ कितनी आंधियाँ रहते सदा सचेत देश-प्रेम के गीत हों और बसंती चीर। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

याद ने फिर छवि उकेरी

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पुष्प सा तन आज महके भ्रमर छेडें राग भेरी धूप आँगन खेलती सी याद ने फिर छवि उकेरी। मोर सा मन नाचता है सुन रहा आहट किसी की प्रेम का प्यासा पपीहा कर रहा चाहत उसी की फिर महावर मेंहदी ने बन खुशी खुशबू बिखेरी। चाँद द्वारे पर खड़ा है साथ तारे बन बराती चाँदनी की ओढ़ चूनर प्रीत बदली घिरी आती महकती जूही अकेली रात ढलती अब अँधेरी। और सौरभ बह उठा फिर प्राण खिलते आज ऐसे मौन छेड़े रागिनी अब बज उठे सब साज जैसे खेलता सुख आज आँचल पीर बहती है घनेरी। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

वो कली मासूम सी

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बेड़ियों ने रूप बदले रख दिया तन को सजाकर वो कली मासूम सी जो देखती सब मुस्कुराकर। शूल बोए जा रहे थे रीतियों की आड़ में जब खेल सा लगता उसे था जानती सच ये भला कब छिन रहा बचपन उसी का पड़ रहीं थीं सात भाँवर।। छूटता घर आँगना अब नयन से नदियाँ बहीं फिर हाथ में गुड़िया लिए वह बंधनों से अब गई घिर आज नन्हें पग दिखाएँ घाव सा छिपता महावर।। बोझ सी लगती सदा है बेटियाँ क्यों है पराई मूक रहती और सहती ठोकरें और मार खाई वेदना का घूँट पींती क्या मिला सबकुछ गँवाकर।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

बोती हूँ नित रातों को

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कोमल तन है निश्छल मन है सहती जग की बातों को पग-पग पर दी अग्निपरीक्षा झेल झेल आघातों को। रीति नीति मर्यादा पालन खींच रखी लक्ष्मण रेखा चीर खींचते आज दुशासन तार-तार आँचल देखा दुष्कर्मों के चुभते कंटक सुनती झूठी बातों को।। दो-दो घर के बीच उछालें जैसे कोई कंदुक हो मरते मन में दबी कामना ज्यूँ वह कोई संदुक हो अर्धविश्व की बनी स्वामिनी बुनती कितने नातों को।। घर की चौखट लील रही अब आँसू पीकर जीती हूँ फटी हुई सपनों की चादर निशदिन उसको सीती हूँ अपने दुख पर सुख औरों के बोती हूँ नित रातों को।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

देख युद्ध जब ठहर गया

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रणभूमि सा बना ये जीवन स्वार्थ हृदय में लहर गया घृणा-द्वेष की बसती बस्ती प्रेम युक्त वह पहर गया।। लोलुपता जब मन पर हावी मार्ग पतन के खुल जाते सद्गुण सारे होम हुए तब नीति-न्याय कब बच पाते मन में रावण-राम लड़े जब संकट फिर से गहर गया घृणा-द्वेष की बसती बस्ती प्रेम युक्त वह पहर गया।। अपनी-अपनी रेखा खींची खाई और बनी गहरी बंद कपाटों पर फिर आकर चीख किसी की कब ठहरी मानवता ने भरी सिसकियाँ दानव का ध्वज फहर गया घृणा-द्वेष की बसती बस्ती प्रेम युक्त वह पहर गया।। राख भले ही ठंडी हो पर रहती उसमें चिंगारी आशा मन में क्षीण शेष हो सच्चाई फिर कब हारी तीरों की टंकार सुनिश्चित देख युद्ध जब ठहर गया घृणा-द्वेष की बसती बस्ती प्रेम युक्त वह पहर गया।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' सादर समीक्षार्थ

बिंब कोई था पुराना

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झाँकता है जब घरों में याद का मौसम सुहाना खेलते थे सुख जहाँ पर प्रेम से मिलना मिलाना। दीमकें ऐसी लगी फिर नींव ही हिलने लगी थी द्वेष दीवारें बना जब दूरियाँ मन में जगी थी बोझ बनते इन पलों को चाहते थे सब भुलाना। चीखते थे प्रश्न कितने और उत्तर ही नहीं थे आँख मूँदे सत्य से सब भागते फिरते कहीं थे पूछता दर्पण अकेला बिंब कोई था पुराना।। धूल छाई प्रीत पर तब जाल माया ने बिछाया स्वार्थ ने तोड़ा हृदय जब रास फिर कुछ भी न आया आग सुलगी लीलती सब कौन जाने फिर बुझाना।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

पीर आँचल में समेटी

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लाज की गठरी लुटी जब पीर आँचल में समेटी घाव तन-मन पर लिए वह कंटकों की सेज लेटी। देखती है स्वप्न कितने टूटते नित काँच से जो गात कोमल फ़ूल जैसा जल रहा नित आँच से जो आँख में सागर समेटे प्यास जिसने रोज मेटी।। कौन समझे पीर उसकी झेलती है दंश कितने नाम देवी के रखे पर मान के सब झूठ सपने साथ चलती है उपेक्षा और खुशियाँ बंद पेटी।। छीनते अधिकार सारे भाग्य के बनके विधाता नोचते हैं पंख उसके सोच में कीचड़ समाता कल्पना ही नाचती है धार दुर्गा रूप बेटी।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

आग सी मन में लगी है

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याद की बदली घिरी जब प्यास सी मन में जगी है। भीड़ में सब हैं अकेले प्रेम के सब स्त्रोत सूखे भावनाएँ मर चुकी हैं बोलते हैं बोल रूखे देखकर ये चाल शहरी आग सी मन में लगी है याद की बदली.........।। धान के वे खेत प्यारे भोर होते गीत गाते पनघटों पे कंगनों के राग कैसे गुनगुनाते गंध सौंधी टिक्करों की आज भी मन में पगी है याद की बदली.........।। प्रीत की नदियाँ सुहानी बाँटती थी पीर सबकी बात करते आँगनों में रोज खुशियाँ थी बरसती स्मृति पटल पर गाँव की वो फिर गली छाने लगी है याद की बदली.............।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

है नवल जीवन सवेरा

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धुंध अब छँटने लगी है लालिमा संदेश लाई राह भी दिखने लगी है आस किरणें जगमगाई। टूटती सब श्रृंखलाएँ जागते मन भाव ऐसे फूटते अंकुर धरा से हर्ष से जो झूमते से नींद से अब जागती सी ये सुबह नवरीत लाई।। सत्य का अब सूर्य चमका कालिमा है मुँह छिपाए भाव जो सोए हुए थे आज फिर से गुनगुनाए। कल्पना ने पंख खोले प्राण वीणा झनझनाई।। रागिनी अब गूँजती सी झूमता मन आज मेरा जीतता विश्वास बोला हैं नवल जीवन सवेरा आज खुशियाँ दीप बनके द्वार मेरे झिलमिलाई।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक