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पूर्ण होता देख सपना

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भोर उजली स्वर्ण जैसी नीड़ में पंछी चहकता पुष्प खिलकर झूमते से केश ज्यों गजरा महकता। आस की चटकी कली अब दे रही संकेत ऐसे दर्द का अब अंत होगा रात ढलती देख कैसे जब खुशी आहट सुनाती तितलियों सा मन बहकता। आज प्रज्ञा भ्रामरी सी डोलती फिरती गगन में और रजकण चूमती सी हो रही कितनी मगन मैं खेलता हैं आज आँगन सूर्य जो नभ में दहकता। है वही संसार सारा आज लगता देख अपना प्रेम से पावन धरा ये पूर्ण होता देख सपना जीतता है युद्ध जीवन सोच कर ये मन लहकता।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

पीर बनती पर्वती है

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देख जलते घर किसी के रोटियाँ उनपर न सेंकों टूट बिखरे देख सपने दाँव उनपर यूँ न फेंकों। लीलती हैं प्राण कितने भूख ये जो बलवती है सूखते नयनों के आँसू पीर बनती पर्वती है मनुजता सिर को पटकती धूर्त जब मिलते अनेकों।। सांत्वना के बोल सुनते वर्ष कितने बीत जाते शून्य जीवन हाथ खाली भेंट में बस मौन पाते झेलते हैं रोज संकट घाव मिलते हैं अनेकों। मूक सी इस व्यवस्था ने छीन ली हैं  सब उमंगे रीति नीति जड़ बनी है कब उठी उनमें तरंगें अटकलों की व्यंजना ये लिख रही चिट्ठी अनेकों।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

गूँज शहनाई हृदय से

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तार मन के बज उठे हैं भाव देते ताल लय से गूँजती है आज सरगम देह तंत्री के निलय से।। पंखुड़ी खिलती अधर की मंद स्मित डोलती सी नैन पट पर लाज ठहरी मौन है कुछ बोलती सी स्वप्न स्वर्णिम भोर जैसे देखती है नेत्र द्वय से।। इंद्रधनुषी सी छटा अब दिख रही चहुँ ओर बिखरी धड़कनों की रागिनी में कामनाएँ आज निखरी प्रीत की रचती हथेली गूँज शहनाई हृदय से।। है नवल जीवन सवेरा हंस चुगते प्रीत मोती प्राण की उर्वर धरा पर भावनाएँ बीज बोती खिल उठा उपवन अनोखा चहकता है अब उभय से।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

मौत से उद्धार तक

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छप्परों में भूख चीखी भोर के विस्तार तक पीर पानी बन बहे जब डूबता संसार तक। अलसते चूल्हे उनींदे आग जलती पेट में चीथडों से दर्द झाँके शून्य मिलता भेंट में भीख जीवन माँगता है मौत से उद्धार तक।। धूप तन को छेदती है छाँव बैरी बन चले आस के सब पुष्प झरते देह चिंता में गले कष्ट का हँसता अंधेरा बादलों के पार तक।। छा रही है कालिमा जो लीलती खुशियाँ सभी ये घुटन दम घोंटती है प्राण ज्यों निकले अभी साथ चलती है उदासी हारता है प्यार तक।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

भाव शून्य में ठहर गए

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डोल उठी जीवन की नैया  सुख के सारे पहर गए अंधकार ने डेरा डाला झेल रहे हैं कहर नए। रोग चाटता दीमक जैसे कौन सुने मन की बातें अपने-अपने दुख में उलझे काल करे कितनी घातें। टूट रही खुशियों की माला मनके सारे छहर गए। कौड़ी-कौड़ी जोड़-जोड़ कर महल बनाया सपनों का एक बंवडर आया ऐसा रूप दिखाया अपनों का चक्रवात अंतस में उठते भाव शून्य में ठहर गए। गंधहीन सब पुष्प हुए अब धूप चुभोती तन में शूल उजड़े-उजड़े कानन सारे चाँद गया है हँसना भूल काले बादल घिर कर आते देख काँप हम सिहर गए। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'

कोई कैसे खिलखिलाए

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छाँव की अब बात झूठी धूप कैसी चिलचिलाए आग में सब सुख जले जब कोई कैसे खिलखिलाए। कौन देखे दर्द किसका स्वप्न पंछी मर रहें हैं भावनाएँ शून्य होती घाव से मन भर रहें हैं नेत्र कर चीत्कार रोए नाव जीवन तिलमिलाए। खोखला तन है थका सा माँगता दो घूँट पानी स्वार्थ का संसार कैसा ठोकरों से बात जानी रात काली घेर बैठी प्राण कैसे बिलबिलाए। आँधियों का दौर कैसा तोड़ता सारे घरोंदे शूल हँसते आज देखे फूल कैसे देख रौंदे और मंजिल खो गई जब आस कैसे झिलमिलाए।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'

पाठ ये किसने पढ़ाया

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पीर पर्वत सी बढ़ी जब कौन सुनता बात किसकी हो रही कंपित धरा भी शून्यता क्यों आज सिसकी। आँगनों में मौन पसरे नींव हिलती आज बोली दाँव पर जीवन लगाते प्रीत की हर बात तोली व्यंजना भी रो रही है देख आँसू धार उसकी। खेल खेला भावना से स्वार्थ को सिर पर चढ़ाया लीक खींची और बाँटा पाठ किसने ये पढ़ाया बो रहे विष बीज पल-पल बेल पनपीं आज जिसकी। शब्द भी अब तीर से है भेदते मन के गगन को फूस के तिनके बने सुख झेलते नित हैं अगन को बंद खिड़की जब हृदय की धूल तो अब झाड़ इसकी। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

रूप अपना ही गँवाया

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प्राण पिंजर में तड़पता प्रीत रोती है अभागी जाल माया ने बुना फिर कौन बनता वीतरागी। राख की ढेरी बनी फिर आग जो मन में लगी थी भावना पाषाण बनती जंग फिर तन में पगी थी घिर रही थी रात काली चाँदनी भी छूट भागी।। कीच काया में भरी थी पंक को कब देख पाया लोभ का भँवरा बना फिर रूप अपना ही गँवाया प्यास फिर भी न बुझी तो झूठ की तब तोप दागी।। साँझ की बेला खड़ी थी काल कहता जग अभागे पाप के भरता घड़ा अब देह ने श्रृंगार त्यागे लक्ष्य गव्हर साधता सा फिर भ्रमित सी पीर जागी।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

भूलती पहचान अपनी

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भूलती पहचान अपनी देखती हूं स्वप्न कोई बोझ बनते इन पलों से आँख मूँदी और रोई साथ छूटा वक्त रूठा कौन बनता है सहारा प्रेम फीका क्रोध तीखा टूटता सुख का सितारा पृष्ठ की उर्वर मृदा पर अक्षरों के बीज बोई ज्यों बरसते मेघ प्यासे त्यों बढ़े मन की उदासी मीन तड़पे बीच नदिया नाचती हूँ मैं धरा सी आग जलती है हृदय में नींद नयनों की डुबोई डूबती नैया भँवर में दूर से देखे किनारा चाँद भी जलता हुआ सा चाँदनी से हुआ न्यारा मीत सच्चे कब मिले हैं याद करती और खोई।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'

है कठिन ये काल

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है कठिन ये काल लेकिन प्राण को रख अब सजग सा आग लगती जब हृदय में देख बनकर कुछ अलग सा जीत निश्चित ही मिलेगी प्रश्न ये तनकर खड़ा है हार कर यूँ बैठ जाना प्रश्न ये उससे बड़ा है उलझनों के दौर सुलझे कर्म कर क्यों है विलग सा खेलता है भाग्य नित ही खेल कितने ही निराले वह मनुज इतिहास लिखदे जो नहीं है शस्त्र डाले राह टेढ़ी हो मगर फिर चल पड़े वो है खडग सा धीर धारण कर धरा से और साहस ले पवन से सूर्य सा हो ओज तन में और करुणा ले गगन से मन द्रवित गिरिराज कहता बह निकल या बन अडिग सा। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

चेतना कैसे जगाओ

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सुप्त हैं संवेदनाएँ चेतना कैसे जगाओ बन चुके पाषाण हैं जो पीर उनको मत सुनाओ। बोलती ये लेखनी भी आज हिम्मत हारती है प्राण नीरस हो गए हैं प्रीत भी धिक्कारती है सो रहें हैं भाव मन के गीत कैसे गुनगुनाओ।। बात मन की सुन सके जो है भला अब कौन ऐसा दूरियों को पाट दे जो प्रश्न ये अब शून्य जैसा मौन की भाषा पढ़े जो कौन पाठक है दिखाओ।। आज हिय में है उदासी आस भी मरती हुई है वेदना हलचल मचाती बात ये तो अनछुई है हो चुकी निस्तेज सी जो वह कलम कैसे चलाओ।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

आस ढलती साँझ जैसी

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आस ढलती साँझ जैसी बढ़ रहे इन फासलों से नैन गगरी छलछलाती टूटते इन हौंसलों से।। शुष्क होती भावना अब है हृदय पाषाण सा क्यों कर्ण भेदी चीख सुनकर मूक बन रहते सभी ज्यों जब मसलती कली कोई रात की इन हलचलों से।। द्वार पर बैठी निगाहें ढूँढती फिरती ठिकाना आँख का तारा कभी तो प्रेम से चाहे बुलाना पीर की विद्युत चमकती कष्ट के इन बादलों से।। टूटती ये चूड़ियाँ भी घाव तन के हैं दिखाती माँग में सजता लहू जब धर्म वे अपना निभाती साँस घुटती प्रीत की जब बोझ बनते इन पलों से।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'

छाई सारी धुंध छटे

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गुँथे पुष्प जब एक डोर में सुंदर सी बनती माला भेद मिटे बस रंग खिले अब तम का हट जाए जाला।। कबसे देखें सूनी आँखें बँटवारे की लीक हटे भावों की उर्वर भूमि पर छाई सारी धुंध छटे बहे प्रेम तब बरसे करुणा द्वेष-घृणा पर हो ताला।। इक माटी में उपजे पौधे कैसे भूले ममता को लता वृक्ष से लिपट दिखाए कैसे अपनी समता को अंहकार सिर चढ़ कर बोले स्वार्थ बना ऐसी हाला।। अंतस में खिल उठे कुमुदिनी मन चातक की प्यास बुझे अंतर्तम की खोलो आँखें देख राह फिर नई सुझे हृदय किरण जब करे बसेरा छटता अंधकार काला।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

होकर फिर संग्राम रहे

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छलना छलती सत्यनिष्ठ को कितने अत्याचार सहे चौसर के पाँसों में उलझे होकर फिर संग्राम रहे।। रौद्र रुप धर खड़ी चण्डिका लहू से होली खेल रही जननी जन्मभूमि है रोती हृदय वेदना उमड़ बही कूटनीति के फेंके पासे धर्म-नीति के किले ढहे चौसर के पाँसों में उलझे होकर फिर संग्राम रहे।। एक वृक्ष की डाल खिले थे दो रंगी ये पुष्प कभी आँखों से अंधे बनकर ये भूल गए मर्यादा भी शूल बने चुभते हैं हिय में घृणा-द्वेष में प्रेम बहे चौसर के पाँसों में उलझे होकर फिर संग्राम रहे।। चंदन की शाखों पर जैसे लिपट रहे हों सर्प कई एक जीव पर टूट पड़े सब कपट चलाए रीति नई एक निहत्था पड़ा समर में अर्जुन पुत्र पुकार कहे चौसर के पाँसों में उलझे होकर फिर संग्राम रहे।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

धूसर धूमिल स्वप्न उड़े

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सहते-सहते हार गई जब तिरस्कार के दंश गड़े हृदय वेदना हुई तरंगित धूसर धूमिल स्वप्न उड़े। ममता रही लुटाती सबपर आँचल में पाए काँटे घोर निराशा मन को घेरे अपनों ने सुख ही बाँटे छीन लिए आभूषण सारे विषदंतों ने दंत जड़े हृदय वेदना हुई तरंगित धूसर धूमिल स्वप्न उड़े।। भोग्या बनकर भोग रही हूँ चीर हरण का पाप बड़ा नयन मूँद कर बैठे सब हैं मुखपर ताला बड़ा जड़ा त्रस्त हुई चीत्कार करे फिर कितने टुकड़े कटे पड़े हृदय वेदना हुई तरंगित धूसर धूमिल स्वप्न उड़े।। धीर धरण कर बनती धरणी भूकंपों से हिलता मन पीर बढ़ी बन लावा बहती झुलस रहा है जिसमें तन जी का जब जंजाल बने बास मारते नियम सड़े हृदय वेदना हुई तरंगित धूसर धूमिल स्वप्न उड़े।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

लाख समान जली लंका

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अहंकार सिर चढ़कर बोले पतन बजाता है डंका सुख सारे फिर जले जलन में घेरे बैठी आशंका भरी तिजोरी ताले लटके भूख मिटाए नहीं मिटी कामी लोभी पदवी पाए करुणा हिय में कहाँ उठी पाप घड़ा भरते-भरते तब छलक उठा कैसी शंका।। दुखियों के आँसू में देखे जिसने सपने सतरंगी स्वेत-श्याम को एक करे फिर कपट-घृणा बनती संगी सूर्य शिखर चढ़कर फिर डूबे सत्य मार्ग होता बंका मृगतृष्णा में डूब गया जो डाले पर्दा आँखों पर क्षणभंगुर जीवन को भूला समझे सबकुछ अमर अजर जले लंक के सब परकोटे लाख समान जली लंका।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

एक शाप है निर्धनता

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जीर्ण-शीर्ण काया में सिमटे संगी बनी है दीनता रोटी के टुकड़े को तरसे कुंठा बन गई हीनता कैसा कोप विधाता का ये एक हँसे दूजा रोए कोई सुख की गठरी थामे कोई अपना सब खोए आग उदर की रोज जलाए मिटती कहाँ ये मलिनता रोटी के टुकड़े को तरसे कुंठा बन गई हीनता।। मानवता हो रही कलंकित पूँजीवाद के फेर में एक तिजोरी भर कर बैठा एक कचरे के ढेर में मरें भूख से जीव तड़पते एक शाप है निर्धनता रोटी के टुकड़े को तरसे कुंठा बन गई हीनता कहीं छलकती मदिरा प्याली कहीं नयन से नीर बहा देख रहा श्रम का अवमूल्यन  शोषण का फिर दंश सहा कुचल रहा सपना जीवन का सोती रहती सज्जनता रोटी के टुकड़े को तरसे कुंठा बन गई हीनता।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' सादर समीक्षार्थ 🙏🌹

भूल चुके क्या याद दिलाना!!

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टूट रही साँसों की डोरी बिखर रहा सब ताना-बाना। भूल-भुलैया में खोए सब चमक चाँदनी भरमाती है बिना शोर के टूटे लाठी घाव नए देकर जाती है खेल सत्य से आँख मिचौली मृगतृष्णा का जाल बिछाना टूट रही साँसों की डोरी बिखर रहा सब ताना-बाना। बड़े-बड़े अभिमानी हारे कालचक्र की चौसर ऐसी मिट्टी में मिल गई सभ्यता देख प्रलय आई थी कैसी कहाँ बची सोने की लंका कहाँ कृष्ण का रहा ठिकाना टूट रही साँसों की डोरी बिखर रहा सब ताना-बाना। नहीं शाश्वत कभी भी जग में दिखने वाली ये जो माया मानव बाँध आँख पे पट्टी करता रहता अपना-पराया। कालचक्र निर्धारित करके भूल चुके क्या याद दिलाना टूट रही साँसों की डोरी बिखर रहा सब ताना-बाना। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

टूटा-टूटा मन का दर्पण

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टूटा-टूटा मन का दर्पण जाने क्या-क्या करा गया बिखर रहे माला के मनके जीते-जी ज्यूँ मरा गया।। प्रेम समर्पण त्याग धूल से आँधी में उड़ जाते हैं स्वार्थ उतारे केंचुल अपनी घोर अँधेरे छाते हैं इक सपनों का महल बनाया नींव खोखली धरा गया बिखर रहे माला के मनके जीते-जी ज्यूँ मरा गया।। अहम सर्प सा फन फैलाए डसता नित संबंधों को समझौते का जाल बिछाए लिखता है अनुबंधों को भूकंपी सी आहट देकर झटका घर को गिरा गया बिखर रहे माला के मनके जीते-जी ज्यूँ मरा गया।। सूना जीवन सूना आँगन लटके मकड़ी के जाले ऊपर से जो उजले-उजले हृदय रहे उनके काले एक दशानन हावी होकर अच्छाई को हरा गया बिखर रहे माला के मनके जीते-जी ज्यूँ मरा गया।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

मेघदूत संदेशा लाए

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मेघदूत संदेशा लाए शीतल-शीतल छाँव-घनी। तिनके-तरुवर पुष्प-पात पर दिखती कितनी ओस-कनी। भीषण ताप सहे वसुधा ने पतझड़ जबसे आया था खोकर अपना रूप सलोना मन उसका मुरझाया था। फिर बसंत आया चुपके से बिगड़ी थी जो बात बनी तिनके-तरुवर-पुष्प-पात पर दिखती कितनी ओस-कनी।। मेघदूत........................ नव कोंपल ने शीश उठाया कलियों ने घूँघट खोले मोर पपीहा कोयल बोले भ्रमित भ्रमर मद में डोले चंचल कलियाँ तितली बहती आकर्षण का केंद्र बनी तिनके-तरुवर-पुष्प-पात पर दिखती कितनी ओस-कनी।। मेघदूत.…................ अब मेघों ने रस बरसाया अवगुंठन करती धरती पहन चुनरिया धानी-धानी खुशियाँ जीवन में भरती तड़ित चंचला शोर मचाए ज्यों मेघों से रार ठनी तिनके-तरुवर-पुष्प-पात पर दिखती कितनी ओस-कनी।। मेघदूत.................... अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

आखिर कब तक ??

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इस ब्रह्मांड में जीवन से परिपूर्ण हरित-नीलाभ्र ओ मेरी पृथ्वी!! तुझसे ही है मेरा वजूद अपने हरितांचल में दिया दुलार तू है तो मैं हूँ ओ मेरी पृथ्वी!! मैं कृतघ्न भूल तेरे उपकार तेरी देह को करता छलनी बाँट दिया खंड-खंड बोने लगा काँटे नफ़रत विद्वेष के उजाड़ता तेरा रूप धूल-धुसरित कर छीनता तेरा जीवन हूँ नहीं अनभिज्ञ स्वार्थी हूँ मैं बड़ा अपने जीवन के लिए छीनता तुझसे तेरे अनमोल रत्न जहर घोलता मैं दूषित करता पर्यावरण सहनशीला,ममतामयी करती क्षमा अक्षम्य अपराध ओ मेरी पृथ्वी!! आखिर कब तक?? अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

कोरोना की पीर शूल-सी

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पथराए से नयन देखते धूमिल सब संसार हुआ मानव हार रहा है बाजी काल खेलता रहा जुआ। टूटे दर्पण से बिखरे सब सपनों के टुकड़े-टुकड़े अजगर बैठा मार कुंडली जीवन को जकड़े-जकड़े भयाक्रांत सा मानस भूला उसने कब आनंद छुआ मानव हार रहा है बाजी काल खेलता रहा जुआ। एक अकेलापन काफी है गिरती तन-मन पे बिजली अँधियारा घिर कर आया है भोर नहीं दिखती उजली। गरल मिला है जीवन भर का अमृत तो अब स्वप्न हुआ। मानव हार रहा है बाजी काल खेलता रहा जुआ। ममता रोती करुणा सोती चाबुक से पड़ते तन पे अपनों के अवशेष देखकर वज्रपात होता मन पे कोरोना की पीर शूल सी क्रंदनमय श्रृंगार हुआ। मानव हार रहा है बाजी काल खेलता रहा जुआ। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

संकट लगते छुई-मुई

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पीड़ा की गगरी भरकर के जीवन की शुरुआत हुई अंगारों पर लोट-लोट कर संकट लगते छुई-मुई। उद्वेलित हो कहती लहरें रूकना अपना काम नहीं तूफानों को करले वश में नौका लगती पार वही। सागर से चुनता जो मोती प्यासी जिसकी ज्ञान कुईं। अंगारों पर-------------।। कर्म तेल की जलती बाती दीपक का तब मान यहाँ सुख-शैया के सपने देखे उसकी अब पहचान कहाँ उड़ता फिरता नीलगगन में औंधे मुँह गिर पड़ा भुंई। अंगारों पर --------------।। पग के छाले जिसे हँसाए आँसू जिसके मित्र बने। ओढ़ दुशाला हिय घावों का उसने चित्र विचित्र चुने कष्ट हँसे जब पुष्प चुभोये कंटक की बरसात हुई। अंगारों पर लोट-लोट कर संकट लगते छुई-मुई।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

देख दशा तब काँपी

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झंझावात में घिरा जीवन चिंताओं की वापी। झूला झूलूँ दुविधाओं में झूलत-झूलत हाँपी।। चाँद जलाता सूरज जैसे, पवन लगाती चाँटे। फूस झोंपड़ी सा तन सुलगे अंतस चुभते काँटे। साया साथ छोड़ के बैठा भय से नैना ढाँपी। झूला झूलूँ दुविधाओं में झूलत-झूलत हाँपी।। हंसा पिंजर में बंदी है, तड़प-तड़प रह जाए। उड़न खटोला कब ये बैठे, कब पी से मिल पाए। माया मकड़जाल सी लिपटी, देख दशा तब काँपी झूला झूलूँ दुविधाओं में झूलत-झूलत हाँपी।। पल में रूप बदलता ये जग, होती घोर निराशा। तन ही अपना साथ न देवे, किससे करना आशा। दूर-दूर तक धुंध छाई है, राह न जाए नापी झूला झूलूँ दुविधाओं में झूलत-झूलत हाँपी।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

टूट गया जब मन का दर्पण

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टूट गया मन का जब दर्पण प्रेम फलित फिर कैसे होता निज भावों की शव शैया को अश्रुधार से नित है धोता। आस अधूरी प्यास अधूरी जीने की कैसी मजबूरी साथ-साथ चलते-चलते भी नित बढ़ती जाती है दूरी नागफनी से उगते काँटे विष-बीजों को फिर भी बोता निज भावों----------------।। तिनका-तिनका बिखरा जीवन एक प्रभंजन आया ऐसा सुख-सपनों में लगी आग थी संबंधों पर छाया पैसा। पलक पटल पर घूम रहा है एक स्वप्न आधा नित रोता। निज भावों------------------।। प्याज परत सा उधड़ रहा है रिश्तों का ये ताना-बाना समय बीतते लगने लगता हर कोई जैसे अनजाना उजडे कानन में एकाकी भटक रहा सब खोता-खोता। निज भावों-----------------।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

स्वतंत्र हूँ मैं

स्वतंत्र हूँ मैं, हाँ बिल्कुल स्वतंत्र कुछ भी कर सकता हूँ। राह के रोड़े चुटकियों में हटा सकता हूँ ये प्रकृति , मेरे हाथों का खिलौना है खेल सकता हूँ मनचाहे खेल। मुझे पसंद हैं वो पहाड़ जो मैंने स्वयं निर्मित किए हैं कूड़े के ढेर से। साफ-सफाई मुझे कहां भाती है। पक्षियों के नीड़ो में मेरा ही बसेरा है आसमान को काले धुएँ से घेरा है। ये देश मेरा है, मुझे पूर्ण स्वतंत्रता है दीवारों पर चित्रकारी करने की। जाति-धर्म,सम्प्रदाय के नाम पर इसे बाँट सकता हूँ। अपने सुख के लिए औरों के घरों में आग लगा सकता हूँ। नीति नियम स्वयं ही बनाता हूँ भ्रष्टाचार से काम चलाता हूँ। मैं स्वतंत्र हूँ परंपराओं से मुझे बैर है। बंदिशों से लगता डर है। वृद्धाश्रम का चलन तभी तो बढ़ा है मेरा सुख सबसे बड़ा है। मेरी स्वतंत्रता सबसे बड़ी है उखाड़ी वो कील जो सुख में गड़ी है। पाप-पुण्य मुझे अब नहीं सताते हैं। स्वर्ग-नर्क भी प्राप्त करने आते हैं। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

जड़वत देखें सभी दिशाएँ

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भग्नावशेष चीख-चीख कर कहते अपनी कई कथाएँ दमित मौन से उपजे पीड़ा जड़वत देखें सभी दिशाएँ।। खंड-खंड पाषाण सुनाते हाहाकार मचा कब कैसा कालचक्र ने खेली चौसर लगता मानव पासे जैसा अधर्म-अनीति के बिखरे शव सुना रहे अपनी गाथाएँ दमित मौन से उपजे पीड़ा जड़वत देखें सभी दिशाएँ।। तिनके से मानव ने जब-जब लाँघी थी लक्ष्मण रेखाएँ। साँस घुटी तब-तब भूमा की प्रलय-प्रभंजन शोर मचाएँ युग अतीत में ढलते-ढलते भूले अपनी रोज गिनाएँ दमित मौन से उपजे पीड़ा जड़वत देखें सभी दिशाएँ।। सूखे आँसू की लीकों में जौहर की है छुपी कहानी लहू नहायी प्यासी धरती आँचल में देखे वीरानी खेल नियति भी हार चुकी है विडम्बनाएं चिह्न दिखाएँ दमित मौन से उपजे पीड़ा जड़वत देखें सभी दिशाएँ।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

पीपल पत्ते पीत हुए

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पतझड़ के आने से पहले पीपल पत्ते पीत हुए उजड़े-उजड़े इस जीवन के सब श्रृंगार अतीत हुए। मकड़ी जाले बुनती घर में झींगुर राग अलापे हैं उखड़ी-उखड़ी ये दीवारें गादुर भी अब व्यापे हैं। नयन झाँकते चौखट बाहर सपने सारे शीत हुए। उजड़े-------------------।। तिनका-तिनका जोड़-जोड़ कर सुंदर नीड़ बसाया था कितनी सुन्दर फुलवारी थी बसंत झूमता आया था समय प्रभंजन ऐसा लाया सुर विहीन सब गीत हुए उजड़े---------------------।। उड़े पखेरू पर फैलाकर नाप रहे अपना रस्ता भूल गए वे नीड़ पुराना प्रेम हुआ इतना सस्ता मौन गूँजते घर आँगन में कंपित से भयभीत हुए। उजड़े------------------।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

शिव वंदना

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अनादि अनंत अभेद शाश्वत कण-कण में वह सदा प्रवाहित। अक्षर अच्युत चंद्र शिरोमणि विष्णुवल्लभ योगी दिगंबर त्रिलोकेश श्रीकंठ शूल्पाणि अष्टमूर्ति शंभू शशिशेखर ॐ प्रणव उदघोष अभ्यंतर ऊर्जित परम करे उत्साहित अनादि अनंत अभेद शाश्वत कण-कण में वह सदा प्रवाहित।। अज सर्व भव शंभू महेश्वर नीलकंठ हे भीम पिनाकी त्रिलोकेश कवची गंगाधर परशुहस्त हे जगद्वयापी ॐ निनाद में शून्य सनातन है ब्रह्माण्ड समस्त समाहित अनादि अनंत अभेद शाश्वत कण-कण में वह सदा प्रवाहित। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

ज्येष्ठ धूप में बंजारन

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सूखे पनघट कूप बावड़ी कोसों चलती पनिहारन रेतीले धोरों में भटके जल की बूँदों के कारण। दूर-दूर तक दिखे मरुस्थल आग उगलती धरती है दिखे नहीं है ठंड़ी छाया जो संताप को हरती है तपिश सूर्य से दग्ध हुई वो ज्येष्ठ धूप में बंजारन रेतीले धोरों में भटके जल की बूँदों के कारण।। जीवन रक्षा कैसे होगी प्रश्न सामने विकट खड़ा धरती का उर भी प्यासा है जल संकट यम रूप बड़ा बूँद-बूँद से सिंचित जीवन मिलें कहीं तो हो पारण रेतीले धोरों में भटके जल की बूँदों के कारण।। श्वेद बिंदु से तन लथपथ है नयनों में चिंता डोले खाली घट को लेकर चलती धीरे-धीरे हौले-हौले आसमान को तकती आँखें बदरा बरसे हो वारण रेतीले धोरों में भटके जल की बूँदों के कारण।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

जलता है अंगार प्रिये

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हाहाकार मचा उर अंतर जलता है अंगार प्रिये लावा बहता पीड़ा बनकर एक तड़प साकार किए। जग-अंबुधि की अश्रु तरंगें अस्थिर होकर नृत्य करें छूने को तट व्याकुल होती हरसंभव वह कृत्य करें सुप्त वेदना झंकृत होती भावों का अवतार लिए लावा बहता पीड़ा बनकर एक तड़प साकार किए हाहाकार ----------------।। आकुल प्राण पथिक प्यासा सा, करुणा घट को ढूँढ रहा मृत संवेदन हीन हृदय में चेतनता को फूँक रहा आस जगाता मानवता हित मन में इक विश्वास लिए। लावा बहता पीड़ा बनकर एक तड़प साकार किए हाहाकार----------------।। दूर क्षितिज पर दृश्य अनोखा नवजीवन का भाव लिए जग के अश्रु देख व्यथित हो जागे कवि के भाव प्रिये हृदय पीर से शब्द पिघलते वर्ण वर्ण आकार लिए। लावा बहता पीड़ा बनकर एक तड़प साकार किए। हाहाकार ----------------।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक।

महक रहा है कस्तूरी सा

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कोरे कागज सी ये काया इसका करले अभिनंदन महक रहा है कस्तूरी सा अंश प्रभो का कर वंदन काया कपट कुंडली उलझी काम क्रोध नित तड़पाए मद में अंधा होकर घूमे मन माया में भरमाए। हिय घट में नवनीत छुपा है उसका करले अब मंथन महक रहा है कस्तूरी सा अंश प्रभो का कर वंदन।। जीवन का उद्देश्य भुलाकर भटका जग के कानन में व्यसन अहेरी जाल बिछाता लोभ लुभाता आनन में जीव बना पिंजरे का पंछी करता रहता नित क्रंदन महक रहा है कस्तूरी सा अंश प्रभो का कर वंदन।। हीरे सा अनमोल जन्म ये अहंकार में सब भूला कालकूट का बनके आदी फिरता है फूला-फूला लोभकपट अब व्यसन रोग से, मुक्ति युक्ति का कर चिंतन। महक रहा है कस्तूरी सा अंश प्रभो का कर वंदन। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

शलभ शूलों पर चला है

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लगी लौ से लगन ऐसी प्रीत में जलना मिला शलभ शूलों पर चला है दोष किसका है भला। जल रहा है प्राण मेरा विरह का वरदान ये जल रहा है गात मेरा प्रेम का प्रतिदान ये यह मिलन तो है अधूरा चाह का है ये सिला शलभ शूलों पर चला है दोष किसका है भला लगी-------------------।। है अमरता कर्म में ही धर्म कहता है सदा जग प्रकाशित जो करे सदा उर उसका जला राह की ये विषमताएँ आस भेदे झिलमिला शलभ शूलों पर चला है दोष किसका है भला। लगी-------------------।। ये समर्पण पूर्ण तब हो स्वार्थ को जब त्याग दे लक्ष्य का संधान पूरा छोड़ कर क्यों भाग दें। आँख भीगी तृप्त मन है तन जला तो है जला शलभ शूलों पर चला है दोष किसका है भला। लगी-------------------।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

और गाँव की याद आई...

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एक रोग सारी दुनिया की दिखलाता है सच्चाई। जिन शहरों को अपना माना उनमें ही ठोकर खाई। ऐसे उसने पैर पसारे काम-धाम सब बंद हुए लोगों ने तेवर दिखलाए रिश्ते सारे मंद हुए। और गांव के कच्चे घर की हूक हृदय में लहराई। जिन शहरों को अपना माना उनमें ही ठोकर खाई। प्रेम फला-फूला करता था गाँव गली-घर-आँगन में चिंता मुक्त रहा था जीवन मात-पिता की छाँवन में विपदा की इस कठिन घड़ी में याद गाँव की बस आई जिन शहरों को अपना माना उनमें ही ठोकर खाई। प्रीत बुलाती खेतों की अब नहर हाट बगियाँ गलियाँ खपरैलों की छत के नीचे रोटी-प्याज छाछ-दलिया नंगे पैरों दौड़ पड़े सब हृदय पीर जब अधिकाई। जिन शहरों को अपना माना उनमें ही ठोकर खाई। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

कदमों के निशान

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रास्ते यूँ ही नहीं बनते मुट्ठी भर लोग रचते हैं इतिहास बनकर मील का पत्थर गढ़ते नए आयाम जिंदगी को देते नई परिभाषा इतिहास के पन्नों में या वक्त की रेत पर छोड़ देते ये कदमों के निशां हमारी संस्कृति या सभ्यता उसी का है परिणाम ये पदचिह्न है सनातन शाश्वत सत्य जीवन यात्रा का हम सभी राही हैं रह जाएंगे बाकी हमारे कदमों के निशान चलते रहना ही जीवन है रह जाता है जो पीछे या छूट जाता है जो बनता है अतीत आने वाली पीढ़ी को सौंपता है विरासत ये पदचिह्न धरोहर हैं जो राह दिखाते हैं मंजिल तक पहुंचाते हैं। मार्गदर्शक बनकर जोड़ते हैं दो युगों को। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

अणु कोरोना हार चलेगा

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हाहाकार मचा है जग में कैसे बेड़ा पार लगेगा मन में आशा आस जगाए जीवन का ये पुष्प खिलेगा। लाशों के अंबार लगे हैं बिछड़ रहे अपनों से अपने साँसों की टूटी डोरी में टूट रहें हैं सपने कितने बंदी जीवन भय का घेरा लेकिन सुख का सूर्य उगेगा मन में आशा आस जगाए जीवन का ये पुष्प खिलेगा।। काल कठोर भयंकर भारी निर्धन को अब भूख निगलती रोग नचाता नाच अनोखा उसके आगे किसकी चलती हार गया वो मानव कैसा साहस संयम साथ चलेगा मन में आशा आस जगाए जीवन का ये पुष्प खिलेगा।। थमती रुकती जीवन धारा फिर से हो मदमस्त बहेगी अंधकार की काली छाया ज्यादा दिन तक नहीं रहेगी प्रचण्ड रूप देख अणिमा का अणु कोरोना हार चलेगा मन में आशा आस जगाए जीवन का ये पुष्प खिलेगा।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

भरते ऊँची उड़ान

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कंटक पथ पर चलने वाले भरते ऊँची उड़ान राह रोकती खड़ी आँधियाँ वे छूते आसमान पाषाणों के बीच दबा ज्यों बीज बना दुख हरता शौर्य बड़े साहस के कारज बीज एक लघु करता फोड़ धरा को निकले बाहर ये सृष्टि का वरदान राह रोकती खड़ी आँधियाँ वे छूते आसमान।। अपने श्रम से लिखते रहते नित नित नई कहानी नाम अमर कर जाते जग में वीर बड़े बलिदानी मुट्ठी में संसार बसाते रखते अपनी आन राह रोकती खड़ी आँधियाँ वे छूते आसमान।। सोए हिय में आग लगादें पत्थर करदें पानी जग परिवर्तन की वे लिखते नित नित नई कहानी बीज रोपते जन के मन में करते नित संधान राह रोकती खड़ी आँधियाँ वे छूते आसमान।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

उसी क्षितिज के पास

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क्षितिज पर छाई लालिमा लाई है संदेश समय रहा कहाँ एकसा करो न किंचित क्लेश।। मन में हो विश्वास अगर मुट्ठी में आकाश साहस संकल्प साथ हो पूरी होगी आस। जीवन के रणक्षेत्र में बदलो अपना वेश समय रहा कहाँ एकसा करो न किंचित क्लेश क्षितिज---------------।। देख क्षितिज पर सूर्य-चंद्र करते हैं बसेरा सुख-दुख जीवन में आकर बदले भाग्य तेरा परिवर्तन का चक्र चले बदले है परिवेश समय रहा कहाँ एकसा करो न किंचित क्लेश क्षितिज------------------।। रजनी तम को भेद रही तारा रूपी आस आए ऊषा  मुस्काती उसी क्षितिज के पास दोनों आकर मिलती हैं रखती कब है द्वेष समय रहा कहाँ एकसा करो न किंचित क्लेश क्षितिज---------------।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

विडंबना

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पाषाणों से बन बैठे हैं जीवन के रखवाले भटक रहा जीवन सड़कों पर पग में पड़ते छाले। छिनी हाथ से रोजी-रोटी पास नहीं है कौड़ी खत्म हुई वो पूँजी भी जो श्रम से थी जोड़ी भूख डसे नागिन सी बनकर जीने के हैं लाले भटक रहा जीवन सड़कों पर पग में पड़ते छाले शहरों ने सुख छीन लिया है गाँव याद है आया कच्चे घर की महक सलोनी उसने पास बुलाया मीलों की यह दूरी अखरे जाते जाने वाले भटक रहा जीवन सड़कों पर पग में पड़ते छाले। पास नहीं है दाना-पानी आँखों में वीरानी बच्चे व्याकुल बेसुध होते पीड़ा किसने जानी कैसी विपदा खड़ी सामने छिने सारे उजाले भटक रहा जीवन सड़कों पर पग में पड़ते छाले। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

कटी प्याज सी खुशबू यादें

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यादों की वो कील पुरानी ठुकती है अंतस में जाकर लुटी धरोहर बड़ी सुहानी धनी हुए थे जिसको पाकर नियति नटी ने नाच नचाया कठपुतली से बने खिलौने काल प्रभंजन बनकर आया टूट गए सब सपने सलौने हाथ हमारे रीते-रीते काम नहीं आए करुणाकर लुटी---------------------।। हृदय मरुस्थल पसरा ऐसे जैसे उजड़ा कोई कानन कोई छाया मिली न ऐसी जिससे फिर शीतल होता मन आँखों में छाई वीरानी नहीं दिखे फिर से कुसुमाकर लुटी----------------------।। नयन बदरिया जमकर बरसे बूँद-बूँद को तरसे सावन तटबंधों को तोड़ चुका है भावों का ये सागर पावन कटी प्याज सी खुशबू यादें ठहर गई पलकों में आकर लुटी---------------------।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'

कोरोना का कहर

सवैया छंद(आठ भगण)         ( १) देखत देखत बीत रहे दिन,चैन नहीं मिलता मन को अब। रोग फँसा जग जीवन सोचत,काल कराल पता जकड़े कब। हाथ मले सब देखत बाहर,छूट मिले कब काम करें तब। पेट भरें तब चैन पडें तन, दौलत भी कुछ पास रहे जब।         (२) पैदल-पैदल भाग रहे सब,गाँव मिले तब चैन पड़े अब। देश विदेश लगे सब देखत,पीर नहीं समझे जन की जब। भूख चली हरने सब संकट,भाग बुरे निज पीर कहे कब। नाग समान डसे अब लोगन,रोग बुरा जन जीवन पे अब। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

इक व्यथित सी व्यंजना

मौन वीणा सोचती है राग का क्यूँ हुआ तर्पण साधक साथ है नहीं अब निज सदा से उसे अर्पण। तार टूटे राग छूटे हूँ उपेक्षित आज ऐसी धूल खाती सी पड़ी हूँ व्यर्थ के सामान जैसी है नहीं अस्तित्व कोई चुभता हो जैसे कर्पण साधक साथ----------।। साँस सरगम टूटती सी प्राण पंछी फड़फड़ाए इक अबूझी प्यास सी फिर जागकर मुझको रुलाए तोड़ बंधन आस का अब व्यर्थ है तेरा समर्पण साधक साथ-----------।। ये विरह की वेदना है, या कि जलती आग कोई नींद आँखों से उड़ी है जागती हूँ या कि सोई इक व्यथित सी व्यंजना फिर देख हँसती आज दर्पण साधक साथ------------।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

साधना भी होगी पूरी

जल उठेगा दीप फिर से तम का मिटना है जरूरी। हृदय में संकल्प हो तो साधना भी होगी पूरी। ठंडी पड़ी इस राख में भी कोई चिंगारी तो होगी। फूँक से सुलगेगी जब ये चेतना झंकृत तो होगी। प्राण में फिर राग होगा विराग से होगी दूरी। निराशा के बादलों से सूर्य आशा का दिखेगा कालिमा के मध्य से जब चाँद भी खुलकर हँसेगा जिंदगी फिर पूर्ण होगी लग रही है जो अधूरी। हार कर चुप बैठ जाना काम मानव का नहीं है संकटों से पार पाना लक्ष्य जीवन का यही है साँस सरगम फिर बजेगी रह गई थी जो अधूरी। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

आस कब रहती अधूरी

हो तिमिर कितना भयंकर आस से हो भले दूरी चमक जुगनू की सिखाती हार से हो जीत पूरी।। हार कर चुप बैठ जाना कबूतर सी बंद आँखें मुँह छुपा कर भाग जाना तने से ज्यों विलग शाखें है नहीं मानव का लक्षण साहसी होना जरूरी चमक-------------।। बिगड़ती-बनती सँवरती जो उठें जलधि में लहरें नाश की चिंता करें कब एक पल को भी न ठहरें तोड़ती तटबंध आकर आस कब रहती अधूरी चमक--------------।। नाश से निर्माण का क्रम चक्र चलता ये निरंतर बिखरते हैं श्वांस मोती लगे शून्य जीवन कांतर सृष्टि का विस्तार होगा रिक्तपन है फिर जरूरी चमक जुगनू की सिखाती हार से हो जीत पूरी।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

सूना जीवन

कोमल कलियाँ पुष्पित कानन भ्रमर देख कर ललचाया आकर्षण में उलझा-उलझा फिरता रहता भरमाया।। हृदय बाँध के चला पोटली भावों से हीरे-मोती आशाओं के दीप जलाता प्रीत ढँके मुँह को सोती टूटे मन के टुकड़े बीने नयन नीर से भर आया। विरह वेदना सिर चढ़ बोली शूलों से आघात मिले फूलों की शैया थी झूठी पतझड़ के दिन साथ चले देकर पाषाणों सी ठोकर प्रेम कहाँ पर ले आया।। रिक्त भावना सूना जीवन उजड़ गए सारे सपने अंगारे सा दहका तन-मन काल-भुजंग लगा डसने भिक्षुक बनकर घूमा जग में सबने मिलकर ठुकराया। अभिलाषा चौहान 'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

सब कुछ भूल रहा था

नेत्र प्रवाहित नदिया अविरल नेह हृदय कुछ बोल रहा था। तिनका-तिनका दुख में मेरे जैसे सब कुछ भूल रहा था। अम्बर पर बदरी छाई थी, दुख की गठरी लादे भागे। नयनों से सावन बरसे था प्यासा मन क्यों तरस रहा था। खोया-खोया जीवन मेरा चातक बन कर तड़प रहा था। तिनका-तिनका दुख में मेरे जैसे सब कुछ भूल रहा था। कस्तूरी को वन-वन ढूँढे, पागल मृग सा मेरा मन था। मृगतृष्णा में उलझा-उलझा कंचन मृग को तरस रहा था। खोया-खोया जीवन मेरा जीवन-धन को ढूँढ रहा था। तिनका-तिनका दुख में मेरे जैसे सब कुछ भूल रहा था। धरती से लेकर अंबर तक, जिसको अपना मान लिया था। सच्चाई से मुख मोड़ा था, दुख की गठरी बाँध लिया था, थोड़ा-थोड़ा सुख जो पाया, कोई उसको छीन रहा था। तिनका-तिनका दुख में मेरे जैसे सब कुछ भूल रहा था। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

काल व्याल सा

काल व्याल सा खड़ा सामने करता पल-पल वार। कैसी विपदा आई मानव, प्रकृति खा रही खार। अपनी करनी से ही तूने विष प्रकृति में घोला। देती है संदेशा प्रतिपल, न बन इतना भोला। रूप बिगाड़ा उसका तूने कर ले ये स्वीकार। मानवता पर संकट आया, नयनों के पट खोल। नियमों का पालन अब कर ले, इधर-उधर मत डोल सुनी नहीं यदि तूने अब भी, समय की ये पुकार। मनमानी क्यों करता फिरता, क्या है तेरे पास। खोल पिटारा बैठा यम है, नित हो रहा विनाश। जीवन बंदी घर के अंदर, होती तेरी हार।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

हिंदी भाषा और अशुद्धिकरण की समस्या-3

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गतांक से आगे- वर्तनी की अशुद्धि से शब्द का अर्थ ही नहीं बदलता बल्कि उसका सौंदर्य भी नष्ट हो जाता है।इसके बाद यदि वाक्य में शब्द का अन्वय सही नहीं है तो वाक्य अशुद्ध हो जाता है।मुझे यह जान कर दुख होता है कि जिस भाषा को काव्य की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अपना जीवन समर्पित कर दिया ,आज उसी हिंदी भाषा में गद्य और पद्य दोनों में त्रुटियों का समावेश हो चुका है।कितना अथक परिश्रम किया था उन्होंने ,संपादक का पूर्ण दायित्व निभाते हुए प्रेरणास्रोत और मार्गदर्शक तो  बने ही, पुनर्जागरण काल के प्रणेता थे वे। खड़ी बोली को काव्य भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने में उनकी भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। सरस्वती पत्रिका का संपादन कार्य‌‌‌ सम्हालने के साथ ही उन्होंने हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार का कार्य भार सम्हाल लिया।पत्रिका में जितनी भी रचनाएं प्रकाशित होती,उनकी वर्तनी और व्याकरणिक अशुद्धियों को वे जब तक शुद्ध न कर लेते तब तक पत्रिका में प्रकाशित नहीं करते थे,उन्होंने कवियों को खड़ी बोली में काव्य रचना के लिए प्रोत्साहित किया। अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध

हिंदी भाषा और अशुद्धिकरण की समस्या-2

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आदरणीय मार्गदर्शक और प्रेरणास्रोत श्री संजय कौशिक'विज्ञात'जी और सखी नीतू ठाकुर'विदुषी'जी चाहते हैं कि मैं इस समस्या पर और कार्य करूँ।करना भी चाहती हूँ,पर सोचती हूँ क्या मेरे लिख देने मात्र से कोई क्रांति संभव है?? मेरे विचार से इसका उत्तर"नहीं"है। आज लाखों लोग सोशल मीडिया पर साहित्य सेवा में लीन हैं।कई एप्प भी हिंदी साहित्य लेखन के लिए इस क्षेत्र में सक्रिय हैं।हिंदी प्रतिलिपि,स्टोरीमिरर, वेबदुनिया इत्यादि। मैं हिंदी प्रतिलिपि और स्टोरीमिरर दोनों पर लिखती हूँ।वहाँ रहस्य ,रोमांच,प्रेम , सामाजिक,देश, आध्यात्मिक आदि विविध विषयों पर अच्छी रचनाएँ लिखी जा रहीं हैं। अच्छी-खासी पाठक संख्या है वहाँ।लाखों लोग जुड़े हुए हैं और रचनाओं को पसंद कर रहें हैं,इसके लिए मैं एप्प संचालकों को धन्यवाद देना चाहती हूँ, लेकिन वहाँ भी यही समस्या है जो मुझे दुखी करती है भाषा में अशुद्ध शब्दों का प्रयोग।पाँच सितारा लेखक की भाषा में अशुद्धियों की भरमार देख मन दुखी हो उठा।इस पर प्रश्न भी उठाया़। बहस भी हुई,पर निष्फल रही।वहाँ लिखना महत्वपूर्ण है,कैसे लिखा जा रहा ये महत्त्वपूर्

हिंदी भाषा और अशुद्धिकरण की समस्या

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हिन्दी भाषा का मानक रूप आज अशुद्ध शब्दों के प्रयोग के कारण लुप्त सा होता  जा रहा है।यह चिंतनीय विषय है।हिंदी विस्तृत भू-भाग की भाषा है। क्षेत्रीय बोलियों के संपर्क में आने से शुद्ध शब्दों का स्वरूप बदल जाता है। अहिंदी भाषियों के द्वारा  भी  हिंदी का प्रयोग संपर्क भाषा के रूप में  किया जाता हैजिसके कारण शब्द अपना मूल रूप खो देते हैं। इसका कारण क्या है? 'उच्चारण' इस समस्या का मूल कारण है। हम जैसा बोलते हैं, वैसा ही लिखते हैं।बिना ये जाने कि मात्राओं के हेर-फेर से शब्द का स्वरूप तो विकृत होता ही है ,उसका अर्थ भी बाधित हो जाता है।ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या किया जाए ?कैसे हिंदी भाषा को अशुद्धिकरण से दूर रखा जाए?कैसे शब्दों के शुद्ध रूप को व्यवहार में लाया जाए । इसके लिए" व्याकरण"का व्यावहारिक ज्ञान होना बहुत आवश्यक है।आज यह समस्या व्यापक हो चुकी है।पहले समाचार पत्रों की भाषा या आकाशवाणी -दूरदर्शन की भाषा को शुद्ध भाषा माना जाता था ,लेकिन बढ़ते व्यवसायीकरण के कारण वहाँ भी भाषा उपेक्षा की पात्र बन गई है।मुद्रण संस्थानों में भी भाषा की शुद्धता पर विशेष ध्यान न

कह मुकरी छंद

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पल-पल जो साथी बन रहता चलता साथ नहीं कुछ कहता उसने ऐसा मन भरमाया हे सखि साजन? ना सखि साया। करूँ प्रतीक्षा निशदिन उसकी, दिखता जब खुशियाँ हैं मिलती। मिले मुझे तो करता चेतन, का सखि साजन?ना सखि वेतन। जिसे देख कर हँसती हूँ मैं, जिसके कारण सजती हूँ मैं। जिसको सब कर देती अर्पण। का सखि साजन?ना सखि दर्पण। पीत वसन पहने मुस्काए, रूप सलोना मन को भाए। शोभा उसकी सदा अनंत। का सखि साजन?ना सखि वसंत। मुझे देख कर जो खुश होता, साथ सदा वह जगता- सोता। प्रीत हमारी चढ़े परवान। का सखि साजन?ना सखि श्वान। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

हम सब भूल जाएँगे!!

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उठा के जो तिरंगे को, कसम ये रोज खाते हैं। झुका के शीश अपना जो, वतन पे जान लुटाते हैं। रहे आजाद ये गणतंत्र, तिरंगा यूं ही लहराए। न भूलो उन शहीदों को, जिन्होंने प्राण गँवाए। बदल कर भी नहीं बदला बहुत कुछ देश में अपने, बना गणतंत्र ये अपना कहाँ पूरे हुए सपने। लगी जो दीमकें जड़ में, करें हैं खोखला इसको पिसा घुन की तरह कोई, पता चला यहाँ किसको? यहाँ वादे हैं,दिलासे हैं, इरादों का पता किसको छिपी पर्दों में बातें हैं, चली हैं वो पता किसको? वो फहराता तिरंगा भी, मौन हो सोचता हरदम। हिले बुनियादी ढाँचे में, घुटे गणतंत्र का अब दम। छली जाती है मानवता, सिसकती सहमी सी बैठी धर्म-जाति के फंदे में, आग आरक्षण की पैठी। असमता की लकीरों में, बना है न्याय भी अंधा। पनपता है रसूखों से, अपराध का फंदा। मना गणतंत्र का ये पर्व, निभा कर्तव्य पाएँगे। जो बीता आज का ये दिन हम सब भूल जाएँगे। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

जली तीली कहीं कोई !!

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जली तीली कहीं कोई, धुआँ उठता कहीं पर है। जले अरमाँ किसी के है, किसी के सपने जलते हैं। जली भावों की महफिल है, कसक बाकी बची दिल में। लगी छोटी सी चिंगारी, पड़ा ये दिल है मुश्किल में। सुलगती आग को यूँ तुम, बुझाओगे भला कैसे? सोयी है प्रीत लंबी नींद, जगाओगे भला कैसे? ये चिंगारी धधकती है, चमन अब राख होता है। किसी का प्यार जलता है, किसी का घर ही जलता है। जली तीली कहीं कोई, जले सपने किसी के हैं। जला कर राख जो कर दें, वो अपने किसी के हैं। भला अपनों से भी कोई,   यहाँ जंग जीत पाया है। बदलते देखा जमाने को, ठगा-सा खुद को पाया है। बची बाकी पड़ी ये राख, किरण उम्मीद की ढूँढो। बची मुर्दों की ये दुनिया, यहाँ जिंदगी को तुम ढूँढो। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक।

अंधा बाँटे …????

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पुरखों के त्याग सूद संग जो वसूलते हैं। जनता की भावना से खेल नित खेलते हैं। श्वेत वस्त्रों में छिपे काले उनके कारनामे कागज़ों में देश का विकास वो तोलते हैं। सत्ता- शक्ति का चहुँओर बोलबाला है। झूठों की जय, सच्चों का मुँह काला है। भ्रष्टाचार के वस्त्र तंत्र पहने बैठा है। आदमियत पर अंधेपन का मुखौटा है। भानुमती का कुनबा गठजोड़ कर बैठा है। हर कोई एक-दूसरे से लगे ऐंठा-ऐंठा है। जाति धर्म असमता की बढ़ती लकीर है। सत्य- ईमान आज सबसे बड़े फकीर है। अंधा बाँटे रेवड़ी अपनों को देता है। योग्य बेचारा सिर धुनकर रोता है। अपनों में बाँटी जाती खूब मलाई है। ईमान - योग्यता ने मुँह की खाई है। अंधों के आगे नैना वाले हार मान बैठे हैं। रोते-रोते अंधों के तलवे ही चाट बैठे हैं। अंधों के राज्य में आँखों का काम है। लाठी जिसके हाथ बस उसका ही नाम है। आजादी की छाँव में धूप से तन सेंके हैं। जिंदगी की नाव को बिन पानी खींचें हैं। बँटती जो रेवड़ियाँ , नंबर कहाँ आता है। बैठै-बैठे अंधों का बस मुँह देखा जाता है। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक