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शीत का प्रकोप

शीत प्रभाव बढ़ा है भारी। अखिल भुवन कांपे नर-नारी। वृद्ध बिचारे थर-थर कांपे। बैठे हैं वे तन को ढाँके। सूर्य देवता खुद भी काँपे। छिपे भुवन में मुंह को ढाँपे। शीत लहर कोड़े चटकाए। हाड़ कंपे अरु चैन न आए। धूप खेलती आँख-मिचौली। धुंध चली है लेकर डोली। खड़ी फसल को पाला लीले। वन-उपवन भी दिखते पीले। जले अलाव शीत से लड़ते। शीत कोप से कैसे बचते। शीत कहर बड़ा अति भारी। ठिठुरती है प्रकृति सुकुमारी। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

'अभि' की कुण्डलियाँ

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                 " वेणी"                  ****** वेणी गजरे से सजी, चंचल सी मुस्कान। कान्हा के उर में बसी,गोकुल की है शान। गोकुल की है शान,सभी के मन को मोहे। जैसे हीरक हार,रूप राधा का सोहे। कहती 'अभि' निज बात,प्रेम की बहे त्रिवेणी। दीप शिखा सी देह ,सजा के सुंदर वेणी।                " कुमकुम"                 ******* कुमकुम जैसी लालिमा,बिखरी है चहुँ ओर। जग जीवन चंचल हुआ,हुई सुनहरी भोर। हुई सुनहरी भोर,सजे हैं बाग बगीचे। जाग उठे खग वृंद,कौन अब आंखें मीचे। कहती 'अभि' निज बात,रहो मत अब तुम गुमसुम। सुखद नवेली भोर ,धरा पर बिखरा कुमकुम                  " कजरा"                   ******* भोली सी वह नायिका,चंचल उसके नैन। आनन पंकज सा लगे,छीने दिल का चैन। छीने दिल का चैन,आंख में काजल डाले। मीठे उसके बोल, हुए सब हैं मतवाले। कहती 'अभि' निज बात,चढ़ी है जब वह डोली। भीगे सबके नैन,चली जब पथ पे भोली।                  "गजरा"                 ******* चंचल चपला सी लली,खोले अपने केश। मुख चंदा सा

सड़कों का हाल

सड़कें मेरे देश की,कैसा इनका हाल। टूटी-फूटी ये रहे,लोग रहें बेहाल। लोग रहें बेहाल,गिरे गड्ढों में गाड़ी। मरते कितने लोग,बनी हैं जैसे खाड़ी। कहती अभि निज बात,चलो तो दिल है धड़के। लेती जीवन लील, बनी गड्ढा ये सड़कें। २ सड़कों का देखो सखी, बहुत बुरा है हाल। जनता धक्के खा रही, मरे किसी का लाल। मरे किसी का लाल, किसी के घर हैं उजड़े। नेता सुने न बात, हाल सड़कों के बिगड़े। कहती अभि निज बात, लगे अंकुश लड़कों पर। हुए निरंकुश देख, तेज वाहन सड़कों पर। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

दुविधा

 टूटे पँखों को लेकर के,कैसे जीवन जीना हो आशा का घट हो जब रीता दुख में हर लम्हा है बीता। बंद हुए दिल के दरवाजे,कैसे तम फिर झीना हो। टूटे पंखों को लेकर के,कैसे जीवन जीना हो। प्रेम की बातें जग न जाने,बस पैसे को अपना माने खड़ी अकेली बस मैं सोचूं,कैसे पार उतरना हो टूटे पंखों को लेकर के कैसे जीवन जीना हो। जीवन जैसे भूल भुलैया,बीच धार में जीवन नैया। मिला न कोई साथी ऐसा,इसका कौन खिवैया हो। टूटे पंखों को लेकर के,कैसे जीवन जीना हो। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

औकात

कठिन समय पर ही सदा,लगता है आघात। मित्र,बंधुवर की सदा,दिख जाती औकात। दिख जाती औकात,काट वे कन्नी जाते। संकट में जब जान,फटी वे जेब दिखाते। कहती अभि निज बात,पता चलता है पल-छिन। अपनों की पहचान, करा देता समय कठिन। सत्ता के पड़ फेर में,भूले अपनी औकात। सूली पर नित चढ़ रहे,जनता के जज्बात। जनता के जज्बात,फिरे वह मारी-मारी। भ्रष्टाचार अपार, करें कालाबाजारी। कहती अभि निज बात,वादे का फेंके पत्ता। भटके युवा समाज,लगे बस प्यारी सत्ता। आया कैसा वक्त ये,टूट रहे परिवार। स्वार्थ के पड़ फेर में, अपनों से ही रार। अपनों से ही रार,करें अपनी मनमानी। भार बने मां -बाप,बहे आंखों से पानी। भूल गए औकात,असल ये रूप दिखाया। अपना सुख बस याद,कैसा वक्त ये आया। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

जलने लगे अलाव

जगह-जगह जलते अलाव घेर कर बैठे लोग। शीत ऋतु का प्रबल प्रकोप भोग रहें हैं लोग। लहू जमाती है हवा सूरज को लगती ठंड बच्चे बूढ़े कांप रहे जमें हुए हिमखंड जाति-धर्म भूलके घेरे बैठे हैं अलाव इससे बढ़िया और नहीं दुनिया में कोई ठांव चाय की हैं चुस्कियां चर्चाओं के दौर ऐसे भी कुछ लोग हैं जिन्हें कहीं नहीं ठौर दिन में धूप पहनते रात को ओढ़े अलाव दर-दर बेचारे भटकते सर्दी से खेलें दांव कैसा मेरा देश है सड़कों पे सोते लोग न जाने किनके कर्मों का दंड रहे हैं भोग। या व्यवस्था के मारे हैं ये लोग। अभिलाषा चौहान सादर समीक्षार्थ 🙏🌷

हालात पर कुंडलियां

सारा देश उबल रहा, बड़े बुरे हालात। कैसा ये अधर्म हुआ,लगा बहुत आघात। लगा बहुत आघात,समय कैसा है आया। बना युवा उद्दंड,देख के मन घबराया। नहीं रहा संस्कार,चढ़ा रहता है पारा। बाल-वृद्ध लाचार,देखा खेल जो सारा। जलती बेटी आग में ,कैसे ये हालात। नरभक्षी मानव बना,करे घात पर घात। करे घात पर घात,हवस का बना पुजारी। करता मीठी बात,बना तलवार दुधारी। कहे अपना खुद को,मुंह से लार टपकती। बहू हो या बेटी,देखी आग में जलती। बढ़ती जाती कीमतें,प्याज छुए आकाश। आम आदमी पिस रहा,जाए किसके पास। जाए किसके पास,सभी है मन के राजा। बुरे हुए हालात,बजा है उसका बाजा। उड़ी हुई है नींद, गृहस्थी कैसे चलती। कमर तोड़ती आज,नित मंहगाई बढ़ती। अभिलाषा चौहान सादर समीक्षार्थ 🙏🌷

बेनाम रिश्ते

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जिंदगी की धूप में दुखों के अंधकार में देखा है मैंने अक्सर अपनों को मुंह छिपाते। पहनकर पराएपन का मास्क चुरा कर नजरें बचते-बचाते पल्ला झाड़ कर अक्सर देखा है मैंने उन्हें दूर जाते। तब मरहम बन कर आ जाते हैं अक्सर सामने कुछ अनकहे रिश्ते जो जानते देना जिन्हें पता होते हैं मायने जिंदगी के  जो तपती धूप में बन जाते हैं ठंडी छांव जो चाहते नहीं रिश्ते का कोई नाम बस आहिस्ता से गमों को सहलाते वीराने में फूल खिला जाते जो अजनबी होकर भी होते हैं सबसे अपने जो लगते हैं जैसे हों सपने पर बेनाम से ये रिश्ते सम्हाल लेतें है टूटती आस की डोर इनके अपनेपन का नहीं कोई ओर-छोर ये अनजाना सा बंधन जो जिंदगी के सफर में चलते-चलते ही जुड़ जाता है जब कोई न दे साथ तब यही काम आता है होती हैं ये धरोहर अनमोल और खूबसूरत जो रिश्तों की नई लिखती है इबारत। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

मेरे एहसास

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पाया है जब भी खुद को अकेला, भटकता रहा मन भीड़ का मेला। जगाया है तुमने तभी मन में मेरे, विश्वास-दीप व हर दुख को झेला। छाया था जीवन में जब भी अंधेरा, लगा ऐसा कि फिर न आएगा सवेरा। तब बन के सूरज चमकने लगे तुम, निराशा ने अपना उठाया था डेरा। न छोड़ा कभी हाथ थामा जो तुमने, न मांगा कभी बदले में कुछ तुमने । रहे बनके साथी छाया के जैसे, हर मोड़ पर साथ निभाया है तुमने। आशा तुम्हीं हो और विश्वास तुम ही, कड़ी धूप में बनते छाया भी तुम ही। मैं और तुम का मिटा भेद जबसे, बसे हो मेरी आत्मा में भी तुम ही। ये साथ हमारा है स्वार्थ से ऊपर, जिएंगे सदा हम ऐसे ही मिलकर। संकट सहेंगे,बढ़ेंगे हम साथी जिएंगे कभी न हम यूं डर-डरकर। ये रिश्ता अपना रूह से जुड़ा है, अहसास तुम्हारा ,तुमसे बड़ा है। भले ही रहो तुम कहीं पर ऐ साथी, जीवन को तुमसे संबल बड़ा है। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

मौन-मनन

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मौन श्रेयस्कर हो सदा यह उचित कैसे भला मौन में समाहित अथाह वेदना भीरूता का अंश घुला मौन की भाषा कौन पढ़ सकता भला चुप वही जिसका कभी परिस्थितियों पर न जोर चला मौन यूं तो  कई मतभेदों को देता विराम है लेकिन हर समय बस मौन रहना कायरता का काम है है छिपा तूफान इस सपाट निर्विकार मौन में अन्याय,शोषण,अधर्म पर मौन से कहां लगा विराम है कुचली जाती कली मासूम गरीब भूखा जब सो रहा छल-फरेब माया का जाल पूंजीवादी जब बो रहा सत्ता के ठेकेदार  जब चूसते हैं रक्त को जब छिन रहे अधिकार सारे और शब्द भी न रहें हमारे तब मौन रहकर देखना बस देखना है खुली आंखें मगर बस मुर्दा बन कर बैठना ये मौन घातक शत्रु बन तब सोखता जीवन के रस न रहो तुम यूंही मौन कि हो जाओ पूर्णरूपेण विवश बदलना है व्यवस्था को मौन से संभव नहीं मौन की कीमत वहीं जब किसी का इससे भला मौन से मन का मनन करना सदा है श्रेयस्कर समस्या-समाधान, चिंतन है सदा श्रेष्ठकर। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

हार की जीत लिखते हैं।

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चलो एक गीत लिखते हैं, हार की जीत लिखते हैं। शुष्क बंजर धरा है जो, खिला दें फूल उसमें भी। दिलों को जोड़ दें दिल से, नयी एक प्रीत लिखते हैं। चलो एक गीत लिखते हैं, हार की जीत लिखते हैं। रूढ़ियों में कभी बंधकर, न मानवता कभी सिसके। खुलें अब द्वार हृदय के, चलो वो नींव रखते हैं। चलो एक गीत लिखते हैं, हार की जीत लिखते हैं। दुखों के साए में घिरकर, भूले हैं जो जीवन को। जगा दें आस उनमें भी, चलो वो रीत लिखते हैं। चलो एक गीत लिखते हैं, हार की जीत लिखते हैं। धधकती आग जो मन में, बने क्यों राख वो यूं हीं। भड़कने दें उसे यूं ही, नया आगाज लिखते हैं। चलो एक गीत लिखते हैं, हार की जीत लिखते हैं। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

आस का दीप

पलकों में सपने संजोए आस मन पलती रही जिंदगी की सुबह-शाम ऐसे ही चलती रही। कुछ लिखे थे गीत जो, बह गए अश्रुधार में। कुछ मिले थे मीत जो, खो गए संसार में। दीप उम्मीदों का लेके, फिर भी मैं चलती रही।  पलकों में .....।  हर घड़ी के साथ देखो, उम्र भी ढलती रही। इक अबूझी सी प्यास , नित हृदय पलती रही। हो गयी मैं बावरी सी, ढूंढती उस कूप को। बूंद अमृत की सदा, जिसमें मुझे मिलती रही। पलकों....।  हों भले ही धूप कितनी, या कि हो बादल घने। स्वप्न पलकों में सजाए, फिर भी मैं चलती रही। आस का ये दीप जो, तूफान में भी न बुझा। प्रीत के भावों से मेरा मन रहा था सदा सजा। फूल पथ में न मिले तो, कांटों पर चलती रही। पलकों.........। . अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

कुछ दोहे

कीट फसल को चट करें,कृषक देखअकुलाए फसलों का बचाव करें,रसायनिक छिड़काए। कीट मरें सो तो मरे,जहर फसल घुल जाए। बीमारी के कोण में,मानव को उलझाए। बिगडती इस सेहत से,मानव हुआ निराश। दृष्टिकोण का फेर से,सिर पे खड़ा विनाश।। रोटी कपड़ा व मकान,सबकी रहती आस। सुखी वही संसार में,जिसके हो ये पास। लालच के पड़ फेर में,मानुष करता फेर। रोटी कपड़ा के लिए,उलझन का है ढ़ेर। जीवन में उलझन बड़ी,कैसे लाभ कमाएं। सोचे ना वो दो घड़ी,स्वारथ में पड़ जाए।। कीट लोभ का मन बसा,बदलता दृष्टिकोण। कपट कपड़ा पहन लिया,उलझन सुलझे कौन। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

मौत से साक्षात्कार

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प्रकाश एक बेहतरीन लेखक था,पाठक उसकी रचनाओं की प्रतीक्षा करते थे। कहानी हो या उपन्यास या फिर कविता उसकी लेखनी कमाल की थी और पात्र-चयन तो और भी उत्तम।पिछले कुछ दिनों से वित्तीय समस्या के कारण वह तनाव में चल रहा था ,इससे उसका लेखन भी अछूता नहीं रहा था।वह एक कहानी लिख रहा था ,जो अभी अधूरी थी। एक दिन प्रकाश किसी काम से जा रहा था।उसका ध्यान भटका हुआ था,अचानक एक कार तेजी से आई और उसने प्रकाश को टक्कर मार दी।प्रकाश उछलकर दूर गिरा और बेहोश हो गया।उसे अस्पताल ले जाया गया।सिर में चोट लगी थी। डाक्टर्स जांच कर रहे थे।परिजन अस्पताल पहुंच चुके थे। डाक्टर ने सभी को बता दिया था कि हालत सीरियस है , आपरेशन होगा ,उसके बाद भी कुछ कहा नहीं जा सकता।परिजन दुखी थे,डाक्टरों ने ईश्वर पर विश्वास रखने और दुआ करने के लिए बोल दिया था। आपरेशन सफल रहा था लेकिन प्रकाश कोमा में चला गयाथा, कोमा  में व्यक्ति का शरीर निष्क्रिय हो जाता है, क्योंकि उसका दिमाग काम करना बंद कर देता है,लेकिन बाहर होने वाली बातचीत कभी-कभी दिमाग को सक्रिय कर देती है और व्यक्ति को कोमा से बाहर आने में मदद करती है। परिजनों को डाक्टर

ये कैसी पर्दादारी..!!

नशा मुक्ति केंद्र में बेटे को तड़पता देख ममता की आंखों से अश्रुधारा बह रही थी,मात्र अठारह वर्ष का था उसका बेटा। बड़ी मनौतियां मांगी थी,तब गोद भरी और आज यह दशा...!उसे पश्चाताप हो रहा था कि उसने बेटे की गलतियों पर सदा पर्दा डाला...कभी पति को सच नहीं बताया,परिजनों की बात अनसुनी की और आज.?    ऐसे ही न जाने कितने प्रसंग हमें अपने आस-पास देखने को मिलते हैं...पिता बेटे के परीक्षा-परिणाम की प्रतीक्षा कर रहा है, परिणाम नदारद,कारण मटरगश्ती और काॅलेज बंक, ममता के अंधे पर्दे में उन्हें कभी बेटे की गलतियां नजर नहीं आई।और आज सब कुछ हाथ से निकलता नजर आ रहा है..!    कहने का तात्पर्य यही है कि जीवन में कई बार समस्याओं को पर्दे में छिपाकर समाधान ढूंढा जाता है,जबकि यह किसी समस्या का समाधान नहीं बल्कि एक नयी समस्या का जन्म है।मां के द्वारा बच्चों की गलतियों पर पर्दा डालने की बात हो या पति -पत्नी के मध्य अविश्वास का पर्दा हो या फिर किसी भी बात को एक-दूसरे से छिपाने का प्रयत्न।ये सभी पारिवारिक क्लेश के जन्मदाता है। झूठ,अविश्वास,क्रोध,अज्ञानअहम,लोभ,मोह मानव आत्मा पर पड़े हुए पर्दे हैं जब मनुष्य वास्त

करार (वर्ण पिरामिड)

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है  मन व्याकुल टूटा-दिल छिना सुकून जिंदगी बेजार कैसे आए करार। ना                          ढूंढों करार बाह्य‌-जग कोई न मीत मजाक बनता घाव और बढ़ता। न आए करार दिल-हार मन-चंचल प्रेम का चातक ढूंढ़ता स्वाति बूंद। वो वीर शहीद खोया लाल स्तब्ध मां-बाप पत्नी बनी बुत कैसे आए करार? वे वीर शहीद किया घात आतंक ओट हतप्रभ देश नहीं आता करार। न आए करार वीर-लाल आतंक भेंट पीठ पर वार अब करो संहार। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक चित्र गूगल से साभार

तांका (शब्द, मोह-माया,पत्र)

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(शब्द) ****************************** शब्द-सागर भावों की हो गागर उत्तम शब्द सुंदर हो सृजन रसमय हो काव्य ****************************** शब्द हैं ब्रह्म करते हैं विस्फोट निसृत ध्वनि शब्द-अर्थ शरीर रसमय हो काव्य। ****************************** (विभीषिका) ****************************** निष्ठुर अग्नि बन गई थी काल चिराग बुझे अंधकार प्रबल तड़पते मां-बाप। ****************************** (मोह-माया) ****************************** भौतिक सुख सांसारिक बंधन उलझा मन असंतोष से ग्रस्त बढ़ाते सदा खर्च। ****************************** जीवन धन व्यर्थ हो रहा खर्च माया में फंसा हरि को कहां भजा भुगत रहा सजा। ****************************** माया में फंसा मुक्ति मृगतृष्णा मिट्टी का तन मोहपाश जकड़ा उलझा न सुलझा। ****************************** (पत्र) ****************************** आया न पत्र विरह से व्यथित तकती राह हृदय चुभे शूल प्रिय गए क्या भूल ? ****************************** प्रेम सुगंध अमिट जो स्मृतियां समेटे पत्र साक्षी बीते पलों के संवाद दो दिलों क

मैं बनूं सुर

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मेरे सुर में तुम्हारा सुर मिले तो बात बने, मैं बनूं सुर और ताल तुम बनो तो बात बने। मैं बनूं गीत ,बोल तुम बनो तो बात बने, मैं बनूं कविता ,रस तुम बनो तो बात बने। मैं बनूं शब्द तुम अर्थ बनो तो बात बने। मैं बनूं छंद तुम तुक बनो तो बात बने। मैं बनूं भाव तुम बनो प्राण तो बात बने। मैं बांसुरी और तुम तान बनो तो बात बने। मेरे जीवन के तुम बनो अलंकार तो बात बने। मैं-तुम बन जाए हम तो कोई बात बने। सुन लो अनकही बातें तुम तो कोई बात बने, मैं बहती नदियां तुम सागर बनो तो बात बने। मैं बहती पवन तुम बनो सौरभ तो बात बने, मैं खिलता पुष्प तुम भंवरा बनो तो बात बने। मैं चांदनी तुम मेरे चंद्रमा बनो तो बात बने, मैं उषा और तुम दिनकर बनो तो बात बने। बिखरा दो इंद्रधनुषी रंग तो कोई बात बने, जीवन बने सप्त सुरों का संगम तो बात बने। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

क्षणिकाएं

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         कहां सुनाई देती    किसी निरीह की पुकार    पत्थरों के शहर में    भगवान भी पत्थर के    इंसान भी पत्थर के    टकराकर लौटती पुकार    घुट कर रह जाती!! *****************************    पुकार अब    हृदय तक नहीं जाती    नहीं जलती कोई आग    नहीं उठती कोई लहर    पुकार में नहीं दम या    हृदय में भाव हुए कम    या हो गए हम निष्प्राण    सुनकर पुकार    कभी किया किसी परित्राण!! ******************************    उठी लहर    बस उठती गई    सर्वत्र चीत्कार    पसरा मौन    मृत्यु का नंगा नाच। *****************************    था अशांत मन    उठी लहर    आया तूफान    एक पल में    काठ बनी जिंदगी    कांच से बिखरे    सारे स्वप्न। *****************************   जिह्वा ने रचे प्रपंच   टूटते रिश्ते   बिखरते घर   होते युद्ध   बेबस इंसान    सोच समझकर बोल । ******************************   जिव्हा   अमर्यादित   उच्छृंखल   वाचाल   करती मनमानी   बदली एक पल में   सारी कहानी। ****************************** अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

दोहावली

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कर्म ***** सूरज बन चमको सदा, करो बड़ों का मान, अच्छे कर्म करो सदा, जग में हो यशगान।। ****************************** पानी **** पानी सदा सहेजिए,ये तो है अनमोल। जीवन के लिए अमृत है,देखो आंखें खोल। ****************************** वर्षा जल संचय करो, बूंद-बूंद अनमोल। जल के बिन जीवन नहीं,देखो आंखें खोल।। ****************************** जल के बिन जीवन नहीं,समझो इसका मोल। जल संकट है सामने,देखो आंखें खोल।। ****************************** अस्तित्व ******** मानव इस संसार में,तू है बूंद समान। कब माटी मिल जाएगा,काहे का अभिमान।। ****************************** सावन ***** सावन आया है सखी,मन में उठे उमंग। रिमझिम बारिश हो रही,सखियां झूमें संग।। ****************************** झूला झूलें सब सखी ,गाए सावन गीत रिमझिम बारिश हो रही,छलक उठी है प्रीत।। ****************************** सावन आया ऐ सखी,मन में उठती पीर । पिय मेरे अति दूर हैं ,दिल हो रहा अधीर।। ****************************** भाषा **** भावों के उद्गार में,भाषा है वरदान। मन की गांठें खोल दे,रिश्तों की है जान।। *******

वर्ण पिरामिड

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 है धर्म परार्थ परमार्थ परोपकार संसार उत्थान मानवता कल्याण। ”"""""""""""""”""""""""” है उर आकुल देख दशा पीड़ित जन शुष्क संवेदना व्यथित मानवता। ”"""”"""""""""""""""""""”  है गीत जिंदगी प्रेम-पगी पुष्प-गंध-सी बहती नदी सी हंसती मुस्कुराती। ”"""""""""""""'"""""""""” है मीत जिंदगी जो सुंदर वर्षा-बूंदों सी निर्झर -धारा सी जलधि-तरंगों सी। ””"""""""""""'""""""""""""” है जंग जिंदगी दुखदायी स्वार्थों से बंधी विवादों में फंसी उलझनों से घिरी। ”""""'"""""""&quo

करते हैं सजदा

तेरे दर पर लेके खाली दामन मायूसियों के मारे वक्त के सितम सह-सह कर हारे करते हैं सजदा ऐ मेरे मौला!! न डूबे कश्ती बीच भंवर में न मिटे जिंदगी नाउम्मीदी के जहर में खाली उनकी झोली भर देना मौला! करते हैं सजदा और ये दुआ भी उनके घर भी आए ईद मने रोज दीवाली मिट जाए ग़म के काले अंधेरे, खुशियों से रोशन हों उनके सवेरे तेरी मर्जी के आगे चली किसकी कहां हैं लबों से बस निकले यही दुआ है तेरी रहमत का नूर बरसे सभी पर ग़म का साया न रहे कहीं पर ऐ मेरे मौला! करते हैं सजदा। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

जीवन में संचित किया है गरल

जीवन-पथ कब हुआ है सरल, हर मोड़ पर पीना पड़ता है गरल। छल-छंदों से भरी इस दुनिया में, धोखा मिलता रहता हर पल। सुख के दिन कब रहते हैं अटल, दुख में भला कौन रहा अविचल। घिर कर आते हैं संकट के बादल, उलझे जीवन जिसमें पल-पल। कभी मन घबराए न पाता कल, कभी हालातों से हो जाता विकल। आंखों से गिरे आंसू कितने, कौन साथ रहा है कब हरपल। ये जीवन चक्र न रूका एक पल, चाहे जीवन में हो कितनी हलचल। न समय पर किसी का जोर चला, न बांध सका कोई मुट्ठी में पल। कब हाथ से सब जाएगा निकल, किसके लिए करे इतने तूने छल। अमृत तुझको फिर भी न मिला, जीवन में बस संचित किया है गरल। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

ओढ़ कर खामोशी

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मैं हूं ज़िंदादिल!! समझती हूं , जिंदगी के मायने, रिश्तों की अहमियत, समय की महत्ता, कर्त्तव्य-परायणता, रहता है प्रयास यही, न दिल दुखे किसी का, न हो किसी की सेवा में कमी, बन जाती हूं चट्टान!! विपत्ति के क्षणों में, ओढ़ कर खामोशी! करती हूं सामना बुरे वक्त का, पर एक कड़वा सच, जो आता है सामने, अपनों का गैर जिम्मेदाराना रवैया, तब बिखरने लगती हूं मैं, अंतस में उमड़ता है ज्वार!! जिसे खुद ही पी जाती हूं, मैं हूं चट्टान!! जिसके अंतस में है , खारे पानी का सोता!! निर्विकार भाव से सहती हूं मैं, वक्त के बेरहम हथौड़े, और मजबूती से, पकड़ लेती हूं जिंदगी का दामन, पी जाती हूं खामोशी से, अंतस की पीड़ा!! नहीं हारती हूं मैं, क्योंकि हूं मैं ज़िंदादिल !! अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

अजीब सी ये खामोशी

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एक अजीब सी खामोशी पैर जमाती है समय के साथ दर्द भी लबों तक आते शर्माता है कुछ बिखरता है कुछ टूट जाता है किरचा-किरचा हुई कांच सी जिंदगी चुभती बहुत बेवजह ये खामोशी हंसने वाले तो तलाशते मौका कुछ तो पत्थर हाथ में लेकर बैठे मिलते कहां इंसान ढूंढे -ढूंढे अनेक सपनों की समाधि है ये दम तोड़ती इच्छाओं का है आईना समय के साथ बनाती है घर अपना भुला देती है जीवन कैसे जीना टूट जाते हैं पंख रूक जाती उड़ान बर्बादी लिखती है नई इक दास्तान ये खामोशी पंजों में दबोचे जीवन सोखती जाती है जीवन के रस तन्हाई और अकेलेपन बनते साथी पसर जाती है भीतर-बाहर खामोशी। देती है आने वाले तूफानों का संदेशा, जिसका किसी को कहां होता अंदेशा। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

पिंजरे का पंछी

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मैं जीना चाहूं बचपन अपना, पर कैसे उसको फिर जी पाऊं! मैं उड़ना चाहूं ऊंचे आकाश, पर कैसे उड़ान मैं भर पाऊं! मैं चाहूं दिल से हंसना, पर जख्म न दिल के छिपा पाऊं। मैं चाहूं सबको खुश रखना, पर खुद को खुश न रख पाऊं। न जाने कैसी प्यास है जीवन में, कोशिश करके भी न बुझा पाऊं। इस चक्रव्यूह से जीवन में, मैं उलझी और उलझती ही गई। खुशियों को दर पर आते देखा, पर वो भी राह बदलती गई। बनकर इक पिंजरे का पंछी, मैं बंधन में नित बंधती गई। आंखों के सपने ,सपने ही रहे, औरों के पूरे करती रही। हर मोड़ पर सबका साथ दिया, अपने ग़म में बस अकेली रही। मेरे मन की बस मन में रही, पल-पल बस मैं घुटती रही। नित नई परीक्षा जीवन की, बस जीवन को ही पढ़ती रही। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

कैसा समय ये आया है??

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वह नन्हा सा गोवत्स उछलता-कूदता अमृत पीने को आतुर घूमता अपनी मां के चारों ओर पनीली आंखों से ताकती गोमाता अपने नन्हे से वत्स को जैसे मांग रहा हो आसमां के तारे अपनी जिव्हा से ममता बरसाती जैसे उसे हों समझाती ऐसे जिद नहीं करते पगले तू ही जरा सा धीर धर ले माना तुझे लगी भूख बहुत आत्मा मेरी रही है तड़प ये इंसान सब निचोड़ लेता है फिर भटकने के लिए छोड़ देता है कहता तो है ये गोमाता पर बड़ा स्वार्थी और निष्ठुर है हमें कहां देगा ये आश्रय खुद की जननी को त्याग देता है। न चारा ,न कहीं हरियाली अपने हिस्से की घास भी उसने खा डाली ये ढेर कचड़ा जो पड़ा है यहां ढूंढ के कुछ उसमें तुझे देती हूं आजा मन को झूठी तू तसल्ली दे ले बूंद भी बाकी नहीं जो तू पीले। रंभा-रंभा के गोवत्स हुआ व्याकुल था मां को भी नहीं पड़ता कल था कैसा वक्त ये आया है गोपालक देश में गो को ही दाने-दाने के लिए तरसाया है। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

जिंदगी एक पहेली

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"जिंदगी कैसी है पहेली हाए, कभी ये हंसाए कभी ये रूलाए।" सच पूछो तो ये जिंदगी एक  पहेली ही है।जब हमें लगता है कि सब अच्छा हो रहा है,सब ठीक है तभी ये  अपना रंग बदल देती है।हम पहेलियां सुलझाते हैं और यह हमें पहेलियों में उलझाती रहती है। 'जिंदगी इम्तिहान लेती है' यह गीत भी इसी फलसफे को सच सिद्ध करता है। मां की कोख में पलने वाला जीवन, उसके ममतामयी आंचल में बढ़ने वाला जीवन ,पिता की छत्रछाया में भविष्य की नीवं रखता बचपन, हंसता-खेलता आगे बढ़ता है। फिर शुरू होते हैं इम्तिहान।ये एक बार शुरू होते हैं तो खत्म ही नहीं होते,ऐसा लगता है जैसे-" जिंदगी हर कदम इक नई जंग है।" इस जिंदगी को कोई मस्तमौला बनकर जीता है और"हर फिक्र को धुंए में उड़ाता चला गया, मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया"की तर्ज पर जिंदगी जीता है तो कोई इसे बोझ समझ लेता है। "न कोई उमंग है न कोई तरंग है,मेरी जिंदगी तो बस कटी पतंग हैं।"किसी को ये सफर बड़ा सुहाना लगता है-"जिंदगी इक सफ़र है सुहाना, यहां कल क्या हो ,किसने जाना" सही भी है,भला कौन जा

ए जिंदगी

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ए ज़िंदगी बहुत दिया है तूने! मैं ही न सम्हाल पाई धरोहर तेरी! तू कसौटी पर कसती रही, हर पल मुझे रही परखती, मैं डरी-सहमी हिरनी-सी फंसी तेरे जाल में! दुख के समुद्र में रही डूबती! नहीं देख पाई, वो उजाले की किरण! जिसने भेदा था अमा की रात को! मैं नहीं समेट पाई उजाला, मोह की जंजीरों में बंधी, न भर पाई उड़ान, इस खुले आसमान में! न पा सकी वो सौरभ! जो अंतरतम में, कस्तूरी-सम थी सदा विद्यमान! न खोल पाई पट, न जला ज्ञान-दीप! बस तुझे बंधन में बांधने की, करती रही कोशिश । न बांध पाई तेरी निरंतरता, तू मुट्ठी से रेत-सम, धीरे-धीरे रही सरकती। मैं करती रही इंतजार, ए जिंदगी तेरा! न तुझे जी पाई, न तेरे साथ चल पाई, मैं मूढ़मति! न पा सकी वह लक्ष्य जो चुना था तूने मेरे लिए। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

यह बस एक भ्रम है

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जीवन का सच समझ लिया है मैंने यह बस एक भ्रम है इसके सिवा कुछ भी नहीं हम इसे पकड़े है दोनों हाथों से फिर भी कहां पकड़ पाते हैं एक झटके में सपने टूटते जाते हैं अपने छूट जाते हैं भ्रम में भटकते माया में उलझते सत्य से विमुख हो जाते हैं जन्म से लेकर मृत्यु तक रचे इस मायाजाल में उलझे किसी बेबस जीव सम मुक्ति की तलाश में फड़फड़ाते हम और उलझते जाते हैं यह उलझना समस्याएं बढ़ाता है न मिलता समाधान न सत्य नजर आता है। बस एक चक्रव्यूह जिसमें फंसे हम न जीवन को जी पाते हैं न मृत्यु से भाग पाते हैं।

कीमो एक अनुभव

आज-कल मुझे अस्पतालों के चक्कर काटने पड़ रहे हैं,क्योंकि मेरी मां को कैंसर हुआ है और उनकी कीमोथेरेपी चल रही है। मैं एक जीवन को बचाने की जद्दोजहद में लगी हूं। आपको यह सब बता रही हूं,इसका ये मतलब बिल्कुल नहीं है कि मैं अपना दुखड़ा आपसे रो रही हूं,बल्कि वहां जो अनुभव मुझे हुआ,उसे आपसे बांटना चाहती हूं। मैंने वहां जाकर देखा कि जिंदगी की कीमत क्या है?? और कितनी बेवस है जिंदगी हर तरह के कैंसर से पीड़ित लोग,दर्द सहते,मौत से लड़ते और कीमो कीे असहनीय तकलीफ को झेलते,कराहते, बस एक आस लिए कि शायद...। कीमो सिर्फ कैंसर पीड़ितों की नहीं होती बल्कि उनके परिजनों की भी होती है। अपनों की जिंदगी बचाने के लिए बेकरार भागते-दौड़ते,कराहते मरीजों के बीच पता चलता है कि जिंदगी का क्या मोल है?? एक ओर चलती है जिंदगी की जद्दोजहद और दूसरी ओर मानव इसी ज़िंदगी को किस तरह जहन्नुम बनाता है। मैं वहां बैठे-बैठे यही सोचती रहती हूं।जो आदमी मृत्योन्मुख होता है,उसे बचाने की हर संभव कोशिश और जो जीना चाहता है,खुश रहना चाहता  है,उसे मृत्यु-मुख में ढकेलने की कोशिश!! यह फलसफा मेरी समझ से परे है। मेरे कहने का मत

सुन्दर तस्वीर सी... जिंदगी

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सुंदर तस्वीर सी यह जिंदगी, सुख-दुख के रंगों से सजी, प्रेम पुष्पों से खिली! त्याग का रंग भरे, समर्पण के भाव भरे! कभी क्रोध की ज्वाला से, कभी नफरत की आंधी से, कभी आने वाली विपदा से, कभी कठिन परीक्षा से, बदलते इसके रंग हैं!! कभी यह तस्वीर , हो जाती है बदरंग!! फिर भी दिखाती है, जिंदगी का आईना! अपनों का धोखा, स्वार्थ के जाल, रिश्तों के मुखौटे, पनपते बैर भाव, एक झटके में, खोल देते हैं आंखें!! तस्वीर हो जाती है भयावह, फिर आहिस्ता-आहिस्ता..., बंजर जमीन पर, होते हैं अंकुरित, भावनाओं के बीज!! बिखरते इंद्रधनुषी रंगों से, बन जाती है , खूबसूरत सी तस्वीर!! ये जो है ज़िंदगी!!

बस तस्वीर में रह गए तुम

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बस तस्वीर में रह गए तुम, रह गई यादें.. जो उमड़ती है, देख तस्वीर तुम्हारी, या यादों के आते ही, देख लेती हूं तस्वीर तुम्हारी !! बस रह गए मुट्ठी में... बीते लम्हें, वो प्यार, वो नोंक-झोंक, वो बचपन, वो रेशमी बंधन, वो मुस्कान, जो खेलती थी चेहरे पर.. तुम्हारे !! ये अमिट तस्वीर संजोए , दिल के किसी कोने में, यादों के बिछोने में, बन रही है एक और तस्वीर!! जिसमें बसा है प्रेम, वो अटूट बंधन, वो साथ पलछिन का, जीना भी उसके संग, रंगना उसी के रंग, बस तुम नहीं हो! पर हर पल यहीं हो!! मेरी यादों में, मेरी जिंदगी में, जो बन गई है जैसे, तस्वीर तुम्हारी!! अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

अनूठी मिसाल

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भारतीय वायुसेना के गरूण कमांडो ज्योति प्रकाश निराला पूरे एक साल बाद एक महीने की छुट्टी पर घर आए थे। माता-पिता की खुशी का ठिकाना नहीं था और बहनें तो भाई के आगे-पीछे घूम रहीं थीं,चार बहनों का एक अकेला भाई परिवार का कर्ता-धर्ता.. माता-पिता के बुढ़ापे की लाठी.... सेवाभावी...स्वभाव से मृदुल..सबका ध्यान रखने वाला देशभक्ति से लबरेज बेटे के आने से मानों परिवार में खुशियां बरस पड़ी थी। इन खुशियों में चार चांद तब लग गए,जब छोटी बहन का रिश्ता तय हुआ। विवाह तय होते ही परिवार में विवाह की तैयारियों को लेकर चर्चा शुरू हो गई। ज्योति कहता..देखना पिताजी कैसे धूम-धाम से करता हूं सरला की शादी....दीदी की शादी में ,मैं छोटा था..। लेकिन अब मैं जिम्मेदार हूं और ऐसी शादी करूंगा सरला की...सारा गांव देखता रह जाएगा। देखते-देखते एक महीना बीत गया था.. छुट्टियां खत्म हो रहीं थीं..दिन पंख लगा कर उड़ गए थे...विवाह में तीन माह शेष थे..फिर जल्दी आने की बात कह कर ज्योति ड्यूटी पर जम्मू -कश्मीर चला गया। वह वायुसेना के द्वारा संचालित आपरेशन रक्षक का अहम सदस्य था। १८ नबंबर २०१७  को आतंकवादियों से चंद्रगढ

बने ये दुनिया सबसे प्यारी

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जन्म जन्म का नाता साथी, जैसे हो हम दीपक बाती। बनके चलूं मैं तेरी परछाई, ए मेरे हमदम ऐ मेरे साथी। दुख सुख मिलकर साथ सहेंगे, पग-पग हम साथ चलेंगे। रहे अमर ये नाता हमारा, हर संकट से मिलकर लड़ेंगे। ये जीवन का सफर सुहाना, तेरा मेरे जीवन में आना। जैसे उतरा चांद जीवन में, महका गुलशन था जो वीराना। ये सुंदर सा अपना आंगन कितना प्यारा है मनभावन। कितने फूल खिले नातों के, जिनसे महका अपना जीवन। आओ मिलकर सींचे ये फुलवारी, प्रेम की खाद डालें-क्यारी-क्यारी। मतभेदों के शूल हटा दें, बने ये दुनिया सबसे प्यारी। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

शर्तों से घिरा जीवन

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कैसी-कैसी शर्तें लगाते हैं लोग जिंदगी को दांव पर लगाते हैं लोग। फकत मुट्ठी भर खुशियों की होती तलाश खुशियों के लिए ही तरसते हैं लोग। कैसे करें पूरी जिंदगी की जरूरतें, जरूरतों के लिए शर्तें निभाते हैं लोग। हर कोई यहां लगाता है शर्त, बिना शर्तों के कहां जीवन जीते हैं लोग। बड़े से बड़े काम होते  शर्त से, घर और बाहर आदमी जूझता शर्त से मानो अगर शर्त तो काम बन जायेंगे बिगड़ता बहुत कुछ टूटती शर्त से। सदियों से चली आ रही परंपरा है ये हर युग की कहानी लिखी गई शर्त से विवशता बनी कभी, बनी जीवन का ध्येय पर हारे न जीवन कोई ,कभी शर्त से। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

घिरे थे जो बादल

घिरे थे जो बादल, वो छंटने लगे हैं। तने थे वे ऐसे, कि निकले न सूरज। सूरज के तेवर से, डरने लगे हैं। छाए थे बादल, बीते कितने वर्षों से। घुटने लगा था, घाटी का दम भी। उजड़ती गई थी, रौनकें वहां की। बनके आतंक , बरसते थे बादल। लहू का रंग से, रंगे थे ये बादल। बरसते थे ओले, बम और गोलियों के। कुटिल चालों से काले, रहे थे ये बादल। कीचड़ ही कीचड़, हुई हर गली थी। सुकून की कली कब, वहां खिली थी। चमका जो सूरज, डरे थे ये बादल। घाटी से अब तो, छंटेंगे ये बादल। खुशियों के फिर से, बरसेंगे बादल। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक घाटी से अब तो, छंटेंगे ये बादल।

भीगने का मौसम आया है।

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सावन का महीना आया है, मेघों ने रस बरसाया है। चलो मिलकर हम चलते हैं, भीगने का मौसम आया है। वर्षा की रिमझिम फुहारों ने, छेड़ा है मन के तारों को। उमड़ कर प्रेम आया है, भीगने का मौसम आया है। ये ऋतु बड़ी सुहानी है, हर ओर पानी ही पानी है। मन मेरा फिर हरषाया है, भीगने का मौसम आया है। नाचते मोर बागों में, पपीहा तान छेड़े हैं। कोयल ने सुर लगाया है, भीगने का मौसम आया है। बना के कागज की कश्ती, तैरा दें बहते पानी में। बचपन फिर याद आया है, भीगने का मौसम आया है। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

दम तोड़ती मेंहदी

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कितने सपने और अरमानों से, हाथों में रचाके मेंहदी  ।  बेटी बनती है दुल्हन, छोड़ बाबुल का घर, तब पाती है साजन। जलती है दहेज की आग, जल जाती हैं मेंहदी। कभी पिटती कभी सिसकती, कभी अरमानों की राख में, दम तोड़ती है मेंहदी। सीमा पर चलती गोली, खेली जाती खून की होली, तब कितनी ही दुल्हनों की, उजड़ जाती है मेंहदी। छलकते जामों में, रोज मयखानों में, अपने आपको को, लुटते देखती है मेंहदी। टूटते रिश्तों में, स्वार्थ की भट्टी में, अंधविश्वास और रूढ़ियों में, मर ही जाती है मेंहदी। अनियंत्रित वाहनों से, होती हैं दुर्घटनाएं, बिखरते हुए लहू में, कुचल जाती है मेंहदी। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

झर-झर झरते पात

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झर-झर झरते पात, कहते जाते अपनी बात। पतझड़ लेकर आया सौगात, हम हुए अब बीते समय की बात। नव किसलय अब आने वाले हैं, नई कहानी सुनाने वाले हैं। झर-झर झरते पात, समेट चले अपनी सौगात। सिखाकर नव पीढ़ी को, प्रकृति परिवर्तन की बात। झर-झर झरते पात, कहते जाते अपनी बात। समय सभी का आना है, अपना दाय निभाना है। चलना सदा समय के साथ, झर-झर झरते पात, कहते जाते अपनी बात। सदा यही होता आया है, कोई सदा नहीं रह पाया है। नवजीवन की समझा के बात, झर-झर झरते पात, कहते जाते अपनी बात। तोड़ पुरातनपंथी रूढ़ियां, तोड़ चलो अब सभी बेड़ियां। चलना सदा समय के साथ, कहते जाते अपनी बात, झर-झर झरते पात। बीत गया हमारा जमाना, तुमको है सब सम्हालना। देना सदा भलाई का साथ, कहते जाते अपनी बात, झर-झर झरते पात। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

जिंदगी सिगरेट- सी

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धीमे-धीमे सुलगती, जिंदगी सिगरेट-सी। तनाव से जल रही, हो रही धुआं-धुआं। जिंदगी सिगरेट-सी, दुख की लगी तीली ! भभक कर जल उठी, घुलने लगा जहर फिर! सांस-सांस घुट उठी, जिंदगी सिगरेट- सी । रोग दोस्त बन गए, फिज़ा में जहर मिल गए। ग़म ने जब जकड़ लिया, खाट को पकड़ लिया। मति भ्रष्ट हो चली, जिंदगी सिगरेट- सी। धीमे-धीमे जल उठी, फूंक में उड़े न ग़म! खुशियों का निकला दम! क्लेश-कलह मच गया, सबकुछ ही बिखर गया। बात हाथ से निकल गई, जिंदगी सिगरेट सी, अंततः फिसल गई। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

कारगिल विजय दिवस

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कारगिल विजय दिवस **************** नमन शहीदों को ! देश के सपूतों को ! वीर जवानों को ! उन शूरवीरों को ... हार नहीं मानी थी, मन में जो ठानी थी, शत्रु को हराना है, धूल उन्हें चटाना है। आंच नहीं आने दी, मातृभूमि के दीवानों ने, प्राण अपने वार दिए, विजय का हार लिए, तिरंगे के मान रखा ! कारगिल पर पांव रखा ! देश की करके रक्षा, पूरी कर ली अपनी इच्छा, बहनों की नम आंखें हुईं, मां-बाप की खुशियां खोईं, पत्नियों के उजड़े सिंदूर, बच्चों से हुए पिता दूर, ग़म में भी खुशी छलकी! विजय की मिली थी खुशी ! गर्व से दमकती भीगी आंखें, वीर सपूतों को याद करके। धन्य हैं वे माता-पिता धन्य है हम भारतवासी जो ऐसे वीर सपूतों को पाया जिन्होने वतन पर सर्वस्व लुटाया। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक।

अनछुए एहसास

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एहसास मरते नहीं, जिंदा रहते हैं सदा। एहसास सदा देते हैं, जीने की वजह। मेरी हर बात को, तेरा बिन कहे समझ लेना। आहिस्ता से मेरे दर्द को, प्यार से सहला देना। बिन बोले ही समझ लेना, परेशानियों को। एहसास नहीं तो और क्या है..!! मेरे माथे की सिकुड़ती लकीरों से, बढ़ना तेरी बैचेनी का.. थाम कर हाथ मेरा, बांट लेना मेरी परेशानी को। मैं समझती हूं.. तेरी हर बात बिन बोले! तू कहे या न कहे, एहसास मुझे होता है। ये अनूठा बंधन है, एहसासों का। एहसास ही बता देते हैं.. अहमियत एक-दूजे की ! ये जो मुस्कराहटें हैं मेरी-तेरी, एहसासों से ही जाग जाती हैं। एहसास जिंदा रहते हैं.. दिल की धड़कनों में सदा, ये हैं ऐसी छुअन अनदेखी, जिससे मै-तुम.., हम बन जाते हैं। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

एहसास है मुझे

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एहसास है मुझे, वह दर्द जो तूने जिया... वह जख्म जो तुझे , दुनिया ने दिया। एहसास है मुझे, उस अकेलेपन का.. उस तड़पते दिल का.. जिसे चाह थी, बूंद भर प्यार की.. परिवार के दुलार की..! एहसास है मुझे, उन आंसुओं का.. जो तेरी आंख से बहे.. उस टूटे हृदय का.. उस वेदना का.. उस तड़प का..। तेरा एहसास, जो दर्द बनकर, जख्म के रूप में जिंदा है, सदा के लिए। भूल गई हूं मैं जीना, क्योंकि तेरा दर्द .. बन गया है मेरा दर्द..! जो चलेगा साथ ताउम्र, तेरा एहसास ..! होता है मुझे, हर पल हर कदम! तू नहीं है फिर भी यहीं है।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

आया सावन घिर आए बादल

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आया सावन घिर आए बादल, काले-काले श्याम रंग बादल। सावन मास सुहाए बादल, धरा को खूब सुहाते बादल। उमड़-घुमड़ कर छाए बादल, गरज-गरज के छाए बादल। नवजीवन के सृजनकर्ता, झूम-झूम के बरसो बादल। कृषकों के दिल हर्षाए बादल, राग-मल्हार गाए बादल, क्रांति का गीत सुनाने वाले, गरज-गरज के बरसो बादल। विरहिन की पीर बढ़ाए बादल, नयनों से नीर बहाए बादल। सूने-सूने जीवन में फिर यादों के घिर आए बादल। धरती की प्यास बुझाते बादल, अमृत रस बरसाते बादल। छलक उठे सब नदी-सरोवर, प्रेम की धार बहाते बादल। ©✍ अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक 😐

अब न मन हर्षाए सावन

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आया सावन, घिर आए बादल। बिन बरसे, उड़ जाए बादल। ऐसे क्यों, तरसाए बादल। अब न चले वो, पवन पुरवाई। जो लेके संदेशा, नैहर से आई। न वो झूले, न वो सखियां उजड़ गई है अब वो बगिया। सूना-सूना, लगता है सावन। न वो खुशियां, न वो आंगन। कब आए, कब चला जाए सावन! अब मन को, न भाए सावन। छूट गई है, अब वो कलाई। दूर पहुंच से, अब वो भाई। बिन भैया के, कैसा सावन! अब न मन, हर्षाए सावन। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

सच्ची मित्र ये किताबें

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किताबें हैं सच्ची मित्र, इनका संसार है विचित्र। ये संजोए जीवन का सार, ज्ञान का ये भंडार अपार। देती हैं ये दिल खोल, सब कुछ ये देती हैं बोल। देती हैं जीवन को गति, शुद्ध-बुद्ध होती है मति। मिटाती हैं ये अंधकार, ज्ञान का ये करती हैं प्रसार। हैं ये जीवन का दर्शन , विचारों का करें संवर्धन। साक्षी हैं ये इतिहास की, मानव के अद्भुत विकास की। संस्कृति की ये संवाहक, आस्थाओं की संस्थापक। आदर्शों की जननी हैं ये, समाज की गरिमा है ये। बहाती काव्य-रस धार, इनका हम पर है उपकार। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

अनुपम किताबें (विधा-सेदोका)

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विद्या की देवी अनुपम किताबें सदा देती हैं सीख दिखाती राह मिटाती हैं अज्ञान बनकर वरदान। किताब कहे कहानी अनसुनी सुख-दुख से बुनी अपनी लगे जिंदगी से हैं जुड़ी सपनों की हैं लड़ी। किताबें साथी अकेलापन मिटे अंधकार भी छटे भाव सबल साहित्य का भंडार अनोखा है संसार। किताबें बोझ बचपन है दबा फिरे इनको लादे भूला है खेल बड़ी रेलमपेल बन गया है जेल। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

आई बारिश (तांका विधा)

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आई बारिश खिल उठी प्रकृति झूमे गगन मगन हुई धरा हर्षा जनजीवन। """"""""""""""""""""""""""""""""""""" मेघ मल्हार कोयल छेड़े राग नाचे मयूर पपीहे की पुकार बारिश की फुहार। """"""""""""""""""""""""""""""""""""" बारिश आई खुशहाली है छाई सौभाग्य लाई हर्षित हैं किसान कृषि का वरदान। """"""""""""""""""""""""""""""""""""" हिले धरती फटते हैं बादल हो भूस्खलन बारिश की आपदा प्रकृति है कुपित। """""""&qu

पालकी (वर्ण पिरामिड)

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        है       सजी      पालकी     फूलों लदी    होगी विदाई   हुआ कन्यादान   बेटी बनी दुल्हन। //////////////////////////////////////////////////                          लो                         उठी                       पालकी                     शुरू यात्रा                     छूटा संसार                  उड़ा प्राण पंछी                  रह गया पिंजर। //////////////////////////////////////////////////         है       दृश्य      सुन्दर    सोती धरा   खिली चांदनी   चंद्रमा विराजे बादलों की पालकी //////////////////////////////////////////////////                         ले                        हर्ष                       हिलोर                      तन-मन                    मोहिनी छवि                 फूलों की पालकी                  विराजें नंदलाला। ////////////////////////////////////////////////// अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक चित्र गूगल से साभार

इंसानियत ही रीढ़ है...

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इंसानियत ही रीढ़ है, इस मानव समाज की। होते हैं ऐसे लोग भी, जो बचाते मानवता की लाज भी। जिनके दम से ये समाज, सिर उठाकर जी रहा। जो स्वयं गरल नीलकंठ , बन के है पी रहा। उन्हीं के दम पर अब भी, ये समाज आगे बढ़ रहा। थोड़ा सुकून मन में है, कहीं तो इंसान पल रहा। बिगड़ते इस दौर में, लगा मानवों का  मुखौटा। हैवान अपनी हैवानियत से, इंसानियत को छल रहा। युगों-युगों से ये कहानी, चलती चली आ रही। कोई बना कंस तो , कोई दुर्योधन बन रहा। जोंक बनकर ये असुर, इंसानियत का रक्त चूसते। दुर्बल भले ही हो जाए, मैंने देखा इंसानियत को जूझते। कलंकित करते हैं जो , मानवों के नाम को। ऐसे नरपिशाचों का, समाज में न स्थान हो। अभिलाषा चौहान स्वरचित, मौलिक 

मानवता की मौत

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मासूम बेटी मां-बाप का खिलौना भोगती दंड असह्य अत्याचार मानवता की मौत। ************** झाड़ी में शिशु रोता औ बिलखता कुत्ते नौंचते भीड़ देखे तमाशा मानवता की मौत। ************** मदद मांगें दुर्घटना से ग्रस्त पत्थरदिल खींचते हैं तस्वीरें मानवता की मौत। ************** राह चलते मनचलों की आंखें भेदती तन सहमी-सहमी सी बेटियों की जिंदगी ************** वृद्ध लाचार मांगें भिक्षा राहों में बेघरबार वृद्धाश्रम आश्रय निकृष्ट हैं संतान। ************** बच्चे लापता होता अपरहण मांगते भिक्षा बेटियां बेचे तन निष्ठुर मानवता। ************** नशे की लत बरबाद हैं घर नित हो क्लेश पड़ता है असर बच्चे कुंठा से ग्रस्त। *************** अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक