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नेह बंध,बंध गए

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भावनाएं उड़ चली जोड़ने नेह के तार जा पहुंची सुदूर देश चीर कर अंधकार। न तुम मिले न हम मिले, नेह बंध ,बंध गए। अपरिचितों के देश में मीत नए मिल गए। कविता की उड़ान ने विश्व एक बना दिया बहती हुई बयार ने भाव-संसार सजा दिया। मीत ये जो मिल गए भावनाओं से जुड़ गए विश्व नया बन गया राग-द्वेष मिट गया। अनदेखे ये मीत जो गा रहे नवगीत जो चल पड़ी परंपरा लिखती नई प्रीत को। एक आस-विश्वास है मन में हुआ प्रकाश है कविता का संसार बड़ा रसमय और खास है। साथ अनवरत सदा मन से मन का बना रहे काव्य-मित्रों की यात्रा यूं सदा चलती रहे। अभिलाषा चौहान स्वरचित

स्वागत है नवागत

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बीत रहा ये वर्ष, दे विषाद और हर्ष। मिली अमिट स्मृतियां, छिनी कुछ खुशियां। बहुत कुछ सीखा-सिखाया, बहुत कुछ खोया-पाया। बन रहा है अतीत, जिंदगी का एक वर्ष , और हो गया व्यतीत। बढ़े कदम आगे, दिल अतीत को भागे। सरक रहा समय, बंधी बेड़ियां पैरों में, खींचती पीछे। खींचतान में उलझा जीवन, खुशियों का ओढ़ता झूठा लबादा। लगा मुखौटा, चिपका झूठी मुस्कान। करने चला नववर्ष का स्वागत!! स्वागत है नवागत , सबके जीवन का हो उत्कर्ष, सबके मन में हो अब हर्ष। जीवन में कम हो जाए संघर्ष, खुशियां लेकर आए ये वर्ष। सुंदर बन जाए ये नववर्ष। अभिलाषा चौहान

प्यार की हो जैसे छुवन

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प्रेम का मधुमास, चल रही बासंती पवन। स्पर्श उसका लगे जैसे, प्यार की हो छुवन। खिल उठी हैं मंजरी, बह उठी तरंगिनि। कूकती है कोयलिया, सिहर उठा तन-मन। गुनगुनाती धूप भी, करती है स्पर्श ऐसे। छुवन जैसे प्यार की, मन को रंग रही हो जैसे। तन-मन भीग उठा, परस पाकर प्रेम का। मैं मिटा ,अहम मिटा, असर था ये छुवन का। एक इस छुवन से, संसार सारा खिल उठा। गुनगुनाने लगे भंवरे, प्रेम-पुष्प खिल उठा। खुशियां तितलियां बन, संतरंगी सपने दिखाने लगी। मन की वीणा बावरी बन, गीत प्रेम के गाने लगी। राग-द्वेष मिट गया, धुंध सारी छट गई। प्रेम की इस छुवन में, रात अंधियारी मिट गई। दिव्यता का प्रकाश, चहुं ओर जगमगाने लगा। अज्ञानता का हुआ नाश, ज्ञान-सूर्य मुस्कराने लगा। अभिलाषा चौहान स्वरचित

बीती ताहि बिसार दे

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खोल दो कपाट! जो बंद कर लिए हैं हमने, आने दो ताजी हवा! निकल जाए दुर्गंध, जिसने बना दिया , जिंदगी को जहन्नुम! अपने ही दायरे में, सिमट गए हम-तुम। खोल दो कपाट, कि मिट जाएं दूरियां। न रहें मजबूरियां, मिल जाएं मन, दूर हो अनबन। भावनाएं हैं बंदी, बहने दो उन्हें! वर्जनाएं जो लगी, अब टूटने दो उन्हें! क्यों रहें बंद ये कपाट! जाति-धर्म-सम्प्रदाय, के नाम पर, क्यों न खोलकर, नफरतों की धूल झाड़ दें? स्वार्थ को त्याग कर, परमार्थ निखार दें । क्यों न फैलने दें, अब प्रेम की सुगंध! क्यों रखें हम खुद को, पिंजरे में बंद? क्यों न करूणा के फिर से , बादल बरसें! क्यों हम खुलकर, हंसने को तरसे ? बहुत हुआ अब, अब और न होगा ? इन किवाड़ों को, अब खुलना होगा! बीत गया है जो, उसको हम बिसार दें! आने वाले पल को, हम फिर संवार दें ! जिंदगी के उपवन, को फिर से बहार दें। मानव बन कर, मानवता का प्रसार करें।। अभिलाषा चौहान स्वरचित

बदल गए भगवान....!!!

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आज सुबह मैं,          हनुमान मंदिर गई थी। मन में उलझनों की,          गुत्थियां कई थीं। इतने दिनों की प्रभु ने,          पुकार नहीं सुनी थी कलियुग के भगवान से,         ऐसी आशा तो नहीं थी। मंदिर में मूर्ति को,         हिला हुआ मैंने पाया। देखकर ये बड़ा,         अचरज मन में समाया। मन ही मन मैं,         मूर्ति से पूछ बैठी। आपकी प्रतिमा,        स्थान कैसे छोड़ बैठी? आपने अभी तक,        पुकार मेरी नहीं सुनी। क्या मेरी पूजा में,        रह गई थी कोई कमी? सुनकर मेरी बात,        मूर्ति मुस्कुराई! आंखें मूर्ति की,        आंसुओं से थी छलछलाई। माता-पिता ने कभी,         जाति नहीं बताई। राम ने जाति बिना,        प्रिय सेवक चुना भाई। सेवक का धर्म था,        सबकी सेवकाई। अब तो जाति पर        बात बन गई भाई। आज भक्तगण सारे,        जाति मेरी खोज रहे । जाति की लेकर ,        प्रश्न कई उठ रहे? जब तक अपनी,        जाति का पता नहीं लगाऊंगा। तब तक मैं भी,        किसी के काम नहीं आऊंगा। अब तो मैं भी,         जाति को ही अपनाऊंगा। जो जाति मेरी होगी,         उसी के काम आऊंग

परिवार क्या है !?

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परिवार नाम है, भावनाओं का, प्यार,समर्पण, त्याग, विश्वास, सम्मान, अपनेपन का। परिवार जहां.. खिलते सपने, मुस्कराते अपने, निभाते अपना दायित्व, मोतियों की माला सम, रहते सब एक डोर में बंधे। इनसे रहित परिवार..! बस समूह, ढोता भावनाओं की लाशें! जेल की चहारदीवारी में, बंद कैदियों के सदृश, थोथे स्वार्थों के लिए लड़ते! संकीर्ण मानसिकता, से घिरे असभ्य लोग!! मेरा-तेरा अपना-पराया करते, भूलकर जीवन जीना, जीवन के लिए लड़ते! ये लोग परिवार को, बनाते अखाड़ा!! रोज करते महाभारत, खुद ही बन वकील-जज!! एक-दूसरे पर थोपते, अनचाहे आरोप! इनके मन की सड़ांध! में मर जाती जीवन की गंध। भेंट चढ़ते रिश्ते!! मां-बाप को नोचते-खसोटते!! परिवार को बनाते पाकिस्तान!! आतंक का होता वातावरण.. जहां हंसी का चंद्र!! आतंक के बादलों में छिप जाता, सुख का सूर्य !! सदा के लिए अस्त हो जाता।! अभिलाषा चौहान स्वरचित

भूमिपुत्र की व्यथा

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कृषक, भूमिपुत्र,अन्नदाता! भारतीय अर्थतंत्र का विधाता। आज स्वयं बना फकीर, उसकी दशा हृदय देती चीर। कभी व्यवस्था,कभी प्रकृति, कभी कर्ज,कभी नियति। देती नहीं उसका साथ, महंगाई जैसे कोढ़ में खाज। अन्नदाता के घर में पड़े अन्न के लाले, अपनी बिगड़ती हालत कैसे सम्हाले?? बिचौलियों ने किए उसके दिन काले, छीन लिए इनके मुख के निवाले। बीज और यूरिया की होती कालाबाजारी, किसान ने अपनी अब हिम्मत हारी। खेतों से उसने की है मोहब्बत, बहाता पसीना करता है मेहनत। मिट्टी के मोल बिकती हैं फसलें, बिचौलिए नहीं सही कीमत उगलें। दो पाटों के बीच पिसता है घुन-सा, समझ नहीं पाता है दोष किनका? ऋण माफी की लगाता रहता गुहार, कागज़ों में पूरी होती ऋण माफी की पुकार। योजनाएं उन तक पहुंचती नहीं है, दशा उनकी देखो सुधरती नहीं है। कैसे दुर्दिन किसानों के आए? रोज एक किसान फांसी चढ़ जाए। तड़पता हृदय मन जार-जार रोता, किसानों का दर्द कहां कोई कहां सुनता!! झूठे दिलासों से कहीं पेट भरे जाते हैं, किसानों को नेता झूठे सपने दिखाते हैं। चिंता में डूबा कृषक चिता चढ़ जाता है, परिवार उसका  कितनी ठोकर

वह मीठी मुस्कान

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"मुस्कान"कितना प्यारा है ये शब्द।  मनुष्य के व्यवहार का अनिवार्य अंग है ' मुस्कान'।मुस्कान के कई रूप होते हैं। अलग-अलग अवसरों पर मुस्कान भी अलग-अलग ही होती है। सबसे मासूम और निश्छल मुस्कान होती है,छोटे बच्चों की,एक पल में स्वर्गिक आनन्द की प्राप्ति करा देती है।सारी थकान और सारी परेशानी इस मुस्कान में तिरोहित हो जाती है। जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते हैं और बाहरी दुनिया से उनका सरोकार होता है, उनकी मुस्कान में औपचारिकता का समावेश होने लगता है और हम जैसे दुनियादारी में फंसे लोग तो अक्सर मुख पर झूठी मुस्कान लपेटे रहते हैं।ऐसा करने में हम भूल जाते हैं कि हम सच में कब मुस्कराए थे? मुझे आज भी याद है ,वह 'मुस्कान'जो मैंने उस बच्चे के चेहरे पर देखी थी।हुआ यूं कि मैं दिल्ली से जयपुर लौट रही थी,रास्ते में कोटपुतली पर बस रूकी,मैंने खिड़की से बाहर देखा,एक दस-बारह साल का लड़का मैले-कुचैले कपड़े पहने लोगों से खाने को मांग रहा था लेकिन किसके पास इतनी फुर्सत है कि उसकी सुने।मेरे पास दो-तीन बिस्किट के पैकेट और कुछ संतरे थे,मैंने उसे बुलाया और पूछा कि'

भूख जलाती है..!!!!

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भूख!! जलाती है तन को मन को, संसार के समस्त कर्मों के पीछे है यही भूख।। भूख के हैं कई रूप क्षुधातुर नहीं देखता उचित-अनुचित मांगता भिक्षा या जूठन में ढूंढ़ता अपनी भूख का इलाज।। भूखे बच्चों की तड़प, पिता को चढ़ा देती फांसी।। दहेज-लोभियों की भूख निगल जाती किसी की जिंदगी।। सत्ता की भूख भुला देती नैतिक-अनैतिक।। भूख ही जन्मदाता भ्रष्टाचार की।। भूख या पेट की आग निगल जाती संस्कार, नैतिक मूल्य।। भूख देती है, अनचाहे अपराधों को जन्म।। लालच की भूख है सबसे ख़तरनाक, जिसमें स्वाह होते रिश्ते-नाते,मां-बाप और न जाने क्या-क्या?? घर भरे होने पर भी भूख की आग अगर हो बलवती तो जला देती संसार को।। भूख ही बनती है वजह कुकृत्यों की!! भूख.....? जिसके इर्द-गिर्द घूमता है सारा संसार।। अभिलाषा चौहान

ये कैसा देशप्रेम????

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देशप्रेम का ढोल बजाते, देश में भ्रष्टाचार फैलाते। आरक्षण की आग लगाते, जनता को हैं उल्लू बनाते। देशप्रेम है इनको कितना, सत्ता का जो देखे सपना। अपनी-अपनी डफली बजाते, घर को अपने भरते जाते। महंगाई नित बढ़ती जाती, भूख गरीब की न मिट पाती। रोजगार को फिरते युवा, हृदय में उनके उठता धुआं। सैनिक अपनी जान गंवाते, देशप्रेम पर बलि हो जाते। उनके नाम पर होती राजनीति, देश की रक्षा पर करें अनीति। देश प्रेम का गाते गाना, देश का खुद ही लूटें खजाना। कुर्सी केवल इनको है प्यारी, नीति-अनीति भी इनसे हारी। जाति-धर्म को मुद्दा बनाए जनता में हिंसा भड़काएं। देश की लिए जो हुए बलिदानी, वे बन गए बस एक कहानी। अब सब करते हैं मन मानी, देश प्रेम की बस यही कहानी। अभिलाषा चौहान स्वरचित

मैं कविता

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मैं कविता! भावों से निःसृत सरिता, न जाने कितने.. कालखंडों से प्रवाहित। समाए हुए, इतिहास और भावों, की लहरें तरंगित, अविरल.. बहती ही जा रहीं हूं। मैं भावों की, अनुगामिनी , बनी प्रेम की फुहार! कभी वीर की हुंकार ! कभी बनी वियोगिनी! बनी भक्ति की तरंगिणी! कभी निर्जीव,सुषुप्त, जगती में फूंकती हूं प्राण। अन्याय,अत्याचार हो, या शोषण का खेल! उठते हैं ज्वार, करती हूं विरोध प्रखर। युग परिवर्तन का, छेड़ती राग। हृदय का अंधकार भी, मेरे प्रभाव से, गया भाग। पहुंच गई वहां, जहां न पहुंचा रवि! जन-जन के भावों में, प्रतिबिंबित मेरी छवि। बंधन में बंधी, छंद में पगी, मुक्त होकर मैं! और निखर उठी। रूप हो कोई, भाव हैं वहीं, मैं हृदय-तंत्री का तार! मैं सुरों की पुकार! अनुभूति मेरी जननी, शब्दार्थ है शरीर, भाव(रस) मेरे प्राण, अलंकृत मेरा शरीर, मैं दुखी हृदय का गान! मैं साहित्य की शान! बहती रही निरंतर.. थी समय की जैसी मांग!! अभिलाषा चौहान स्वरचित

चंद हाइकु

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  *      आदर्श तुच्छ           सांस्कृतिक पतन           नीतियां गौण‌‌‌।   *       धन-प्रबल           जीवन-उपेक्षित           भावना गौण ।               *       जनता दुखी           राजनीति-प्रपंच           मूल्य हैं गौण ।                            *      वृद्ध मां-बाप           पड़े हैं वृद्धाश्रम           रिश्तें हैं गौण ।     *    भाव-विहीन           कर्तव्य-कर्म गौण           जड़ हैं जन।           अभिलाषा चौहान           स्वरचित

शिशिर का प्रभाव

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शिशिर का प्रभाव बदले प्रकृति के हाव-भाव सूर्य को लगी ठंड आग भी पड़ी मंद धूप थी कांपती गर्मी भी मुख ढ़ांपती शिशिर से थी डर रही जमने लगे वजूद कंपकंपाते हाड़ कड़कड़ाती ठंड था शिशिर बड़ा प्रचंड फसलों को बना निवाला खुश हो रहा था पाला थी ओस भी जमी वृक्षों की सांस भी थमी पशु-पक्षी भी व्याकुल से सूर्य का मुंह ताकते बादलों के लिहाफ से सूर्यदेव झांकते छुड़ा के सबके छक्के शिशिर ने दिखाए इरादे पक्के जम रहा था सब कुछ आदमी के अंदर था बन गया वह बुत संवेदनाओं से हो रहित। ये शिशिर का प्रभाव या कि आदमी का स्वभाव। अभिलाषा चौहान स्वरचित

कर्त्तव्य-कर्म का भान नहीं..!

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कर्त्तव्य कर्म का ज्ञान नहीं, निज मनुज-धर्म का भान नहीं। वो भार लिए है जीवन का, जिसे मंजिल की पहचान नहीं। जीवन से जुड़े कर्त्तव्य सभी, जिसने पूरे कभी किए ही नहीं। जिसने स्व से ऊपर उठकर, पर के लिए कभी सोचा ही नहीं। जिसने करूणा के जल से , घाव किसी का धोया ही नहीं। वो पाषाण-हृदय क्या जानेगा, कर्त्तव्य-कर्म की महिमा कभी। जो अपने सुख के लिए ही जिए, दूसरों को जिसने दुख ही दिए। वह मानव क्या कहलाएगा! दानव से किए जिसने कर्म सभी। कर्त्तव्य यही बस मानव का, धर्म-जाति से ऊपर उठे। परमार्थ और सदाचरण से मानवता का परिष्कार करें। प्रेम,अहिंसा,शांति का संसार में वह प्रसार करे। निज कर्तव्यों का पालन कर, जग-जीवन का उद्धार करे। अभिलाषा चौहान

नदी की व्यथा

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मैं सरिता पावन निर्मल, बलखाती बहती अविरल। करती रही धरा को सिंचित, भेद किया न मैंने किंचित। निर्मल सुन्दर मेरी धारा, स्नेह लुटाती रहती सारा। व्यथित बहुत हूं मैं इस जग से, बांध दिया है मुझको जबसे। कलुष उड़ेला अपना सारा, मैला,कचरा डाल अपारा। घुटता दम बहते हैं आंसू, व्यथा बहुत है कहूं मैं कांसू। जीर्ण-शीर्ण मैं होती जाऊं, फिर भी अविरल बहती जाऊं। मलिन हुई मेरी जलधारा, सबने मुझसे किया किनारा। मां कहते-कहते नहीं थकते, मेरी दशा को कभी न तकते। ऐसा न हो मैं थक जाऊं, बहते-बहते मैं रूक जाऊं। तब क्या होगा सोचा-विचारा, हृदय मेरा अब हिम्मत हारा। अभिलाषा चौहान स्वरचित

शहनाई और बिस्मिल्ला खां

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शहनाई का जिक्र भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्ला खां के जिक्र के बिना अधूरा है, एक सामान्य से लोक वाद्य-यंत्र को विश्वस्तरीय पहचान दिलाने में उनका योगदान अभूतपूर्व रहा है। बिहार के डूमरांव में जन्मे अमीरूद्दीन का पालन-पोषण संगीत की लय और तान के बीच ही हुआ था।५-६ वर्ष की अवस्था में वे अपने नाना के यहां काशी आ गए।नाना और मामा काशी के पुराने बालाजी मंदिर के नौबतखाने में शहनाई वादन करते थे। यहां बालक अमीरूद्दीन को अपने चारों ओर शहनाईयां ही दिखाई देती। फिर उसे भी रियाज के लिए बालाजी के मंदिर के नौबतखाने में भेजा जाने लगा।काशी तो है ही संगीत की नगरी, नौबतखाने की ओर जाते हुए अमीरूद्दीन को हर घर से संगीत की स्वर-लहरियां सुनाई देती। जिन्हें सुन-सुनकर उसे संगीत के आरोह-अवरोह का बखूबी ज्ञान हो गया था। धीरे-धीरे शहनाई और बिस्मिल्ला खां एक-दूसरे के पूरक बन गए।काशी में आयोजित संगीत समारोह उनके बिना अधूरे रहते। बढ़ती ख्याति केसाथ ही शहनाई-वादन में उनकी सिद्धहस्तता बढ़ती चली गई। देश-विदेश में होने वाले शास्त्रीय संगीत समारोह में उनका शहनाई-वादन अनिवार्य सा हो गया। शहनाई में तो जैसे उनकी जान बसती थी।

वेदना......!!!!

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असीम वेदना से पीड़ित ये नारीं, परित्यक्ता,विधवा, दुष्कर्म की मारी। बिना किसी अपराध झेलती दंड, समाज भी छुड़ा लेता अपना पिंड। सीता,शंकुतला, यशोधरा की व्यथा, किसी ने कहां सुनी इनकी कथा। भोगती रही दंश असीम वेदना का, अकेलेपन और परित्यक्ता होने का। स्थितियां कभी कहां बदलती हैं!! आज भी नारियां ये दंश झेलती है। वैधव्य भोगती हो जो अबला! परिवार मानता है उसे बला!! मनहूस कहकर जाती दुत्कारी, पीती आंसू वह वेदना की मारी। दुष्कर्म की मारी, समाज से हारी, जीवन हो जाता उसके लिए भारी। मरतीं हैं ये रोज थोड़ा-थोड़ा, समाज ने इनसे अपना नाता तोड़ा। भोगती निरपराध दंड अपराध का, बन जाती जो नासूर उस वेदना का। कौन समझता है भला इनका द्वंद्व, क्योंकि लोग हैं दृष्टिहीन और मंतिमंद।। अभिलाषा चौहान

ओ माँ!!

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मां, तू जीवन दात्री, तू ही है भगवान, मुझमें नहीं शक्ति कर पाऊं तेरा गुणगान। मां, तू ममता की मूरत अतुल्य अनुपम, किसी भी हाल में तेरी ममता न हो कम। मां, तुझसे ही जीवन, तुझसे ही संस्कार, तू ही प्रथम गुरू, मेरे जीवन का करे उद्धार। मां, तू अंतर्मन भी मेरा पहचान लेती है, बिना कहे तू मेरा ख्याल रखती है। मां, संकट में मुझे बस तू ही याद आती है, चिंता से घिरूं तो साथ तुझे पाती हूं। मां, मेरे कानों में गूंजते सदा तेरे बोल हैं, कठिन से कठिन क्षणों में देते रस घोल हैं। मां, तेरी ममता तेरा धैर्य याद आता है मुझे, तुझसे दूर होने पर यही संबल बंधाता मुझे। मां, तुम साथ न होकर भी सदा साथ होती हो, तुम मेरे शरीर में सदा हृदय बन धड़कती हो। मां, तेरी ममता को मां बनके समझ पाई हूँ, मां बनकर भी मैं बड़ी नहीं हो पाई हूँ। मां, तू मेरी शक्ति और तू ही सहारा है , मां, तुझसे ही मेरा ये परिचय सारा है। मां, तेरी ममता बड़ी ही अनमोल है, जीवन भर भी इसका चुकेगा न मोल है। मां, तेरी ममता का लिए शब्द नहीं पास मेरे, मां, तेरी महानता के लिए उद्गार नहीं पास मेरे। अभिलाषा चौहान स्वरचित

तुलसी का मोहभंग....!!

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तुलसीदास जपते सदा, राम का नाम। मन में भक्ति-भाव का, होता नहीं अहसास। काशी रह अध्ययन करें, मन में पत्नी वियोग, कैसे रत्ना से मिलें? कैसे हो संयोग? विरह वेदना बलवती!! चल पड़े तुलसीदास, मेघ बरसता अति भारी, तुलसी ने ने मानी हार!! उफन रही यमुना नदी, न रोक सकी थी राह। पत्नी से मिलन की, मन में थी अति चाह। अर्द्धरात्रि जा पहुंचे चुपके, वे रत्ना के पास। रत्ना जडवत रह गई, ऐसी थी न आस!! लोक-लाज मर्यादा का, नाथ किया न ख्याल। ऐसे भी कोई भला, आता है ससुराल। सुंदर रत्नावली, थी विदुषी नारी। पति के अंधे मोह पर, करते सोच-विचार, बोल उठी वह धीरे से- हाड़-मांस की देह से, प्रियतम इतना नेह!! यदि करते तुम राम से, इतना ही स्नेह!! भक्ति होती सफल, मिलता राम का नेह।। पत्नी के शब्दों से, तुलसी का जागा विवेक! "मोहभंग "हुआ उनका!! त्याग चले वे गेह। राम-राम रसना रटे, आंखों से अश्रु-धार। राम बिना अब जीवन में, कुछ भी नहीं स्वीकार।। अभिलाषा चौहान स्वरचित

साया .....!!

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यादों के जंगल में, अतीत के साये!! लिपट जाते हैं, सूखे तिनकों की तरह। लाख चाह कर भी, नहीं निकल पाते , इस भूल-भुलैया से..। मन बढ़ता दो कदम आगे, लौटता चार कदम पीछे..! लिपटा उन्हीं सायों से । जिसमें वर्तमान अक्सर.. ठिठक जाता मेहमान की तरह। थम जाता है प्रवाह, उन्नति का...! हम बने मूक दर्शक!! उलझे रहते हैं, सत्य की तलाश में..। यह सत्य जो हमेशा, चलता साये की तरह साथ, कि, जीवन और मृत्यु में, बस है शरीर का फासला .. शरीर साया है आत्मा का, चलता है तभी तक साथ, जब तक है आत्मा को मंजूर !! अभिलाषा चौहान स्वरचित

कौन सुनता है आवाज

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आवाज़ दबा दी जाती है अकसर मन की,आत्मा की, सुनी-अनसुनी करना बन गई है फितरत हमारी। कौन सुनता है ?? जब तड़पती हैं मासूम हैवानों के बीच दब जाती है आवाज अट्टहासों में!!! कौन सुनता है ? जब शोषण के खिलाफ उठती आवाज अक्सर दबा दी जाती है बाहुबलियों द्वारा !!! अब शब्द मुंह में जबरन ठूंसे जाते हैं सच्चाई को दबाने के लिए छीन ली जाती है स्वतंत्रता अभिव्यक्ति की ।। अब आवाज वेबस है भटकते सरकारी दफ्तरों में गरीब काम की आशा में नहीं होती सुनवाई बहरी व्यवस्था में कौन सुनता है आवाज  ?? आत्मा कराहती है अक्सर अन्याय को देखकर बहरे इंसान कहां सुनते हैं आवाज ?? घर-बाहर हर जगह मजबूर आदमी जिसकी आवाज मर जाती है उसी के अंदर!! अभिलाषा चौहान स्वरचित

ध्वस्त होती संरचना

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राम-राज्य की संकल्पना युगों-युगों से करते आए महापुरुष। करना चाहते थे ऐसे समाज की संरचना जहां हो महत्त्वपूर्ण मानवीय मूल्य मानव-मानव में न हो भेद जाति-वर्ण-सम्प्रदाय में विभक्त न हो समाज कुरीतियों, अंधविश्वासों से मुक्त आदर्श समाज जहां हो रामराज्य। गौतम,महावीर,बापू अन्यान्य महापुरुष करते सामाजिक बुराईयों का परिष्कार स्थापित कर सद्भाव करना चाहते थे पूर्ण मानव की संरचना जो ईर्ष्या-द्वेष से रहित अवगुणों से मुक्त मानवता का पथ-प्रदर्शक हो। लेकिन खंड-खंड हो गई संकल्पना ध्वस्त हो रही सामाजिक संरचना जातिवाद--सम्प्रदायवाद अधर्म,अनीति की भेंट चढ़ कर। संयुक्त परिवार सामाजिक संरचना का आधार होते विश्रृंखल झुलसते रिश्ते स्वार्थ के जहरीले नाग डंस रहे सौहार्द्र को अपने में सिमटते लोग खंडित होती एकता। भ्रष्टाचार,आरक्षण,अन्याय की भेंट चढ़ते मानवीय मूल्य घुन की तरह खोखला कर रहे सामाजिक संरचना को!!! अभिलाषा चौहान स्वरचित चित्र गूगल से साभार

आत्मा

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सुन्दर ये संसार है, सुन्दर पाया शरीर, पंचतत्व से है बना,आत्मा का है नीड़। वस्त्र बदलती आत्मा,रखती प्रभु से नेह। मूढ़ मति मानव सदा, करें देह से नेह। मद,माया,मोह में,मानव उलझा जाए। आत्मा की करें उपेक्षा,सुख में भटका जाए। आत्मा विरहिणी बनी,पिय-पिय करतीं जाए। मूढ़ मति मानव सदा, अनसुनी करता जाए। मानव इस संसार में,सदा नहीं तेरा वास। इक दिन पंछी उड़ जाएगा,लगा प्रभु से आस। आत्मा-परमात्मा एक हैं,कुछ दिन का है वियोग। एक दिन हो जाएगा, दोनों का संयोग। अभिलाषा चौहान

चलों जी लें कुछ पल साथ में हम

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वो दिन भी बड़े सुहाने थे, हम दुनिया से बेगाने थे। बस प्यार के हम परवाने थे, कुछ खोए-खोए से रहते थे। वो झील सी नीली आंखों में, मैं भूला-भूला रहता था। वो लहराते काले बालों में, चांद सा मुखड़ा दिखता था। बीत गया वो समय कहां, प्यार भी खो गया न जाने कहां! आंखों चढ़ गया अब चश्मा है, बालों की सफेदी कुछ कहती यहां! जीवन की अंतिम सांझ है ये, दीपक भी अब बुझने को है। जरा देना तुम अपना हाथ जरा, महसूस करूं गर्माहट जरा। तुम मेरे कांधे पर सर रख दो, मैं तुमको फिर महसूस करूं। बस प्रेम का जीवन जीते हैं, अब थोड़ा रूमानी होते हैं। जिम्मेदारी सब बीत गई बुढ़ापे की खुमारी है छाई चलो जी लें कुछ पल साथ में हम रूमानियत से भरे हों अब हम-तुम। अब कोई चिंता न कोई फ़िकर, अब जीना है हमको जी भर। अब प्यार ही प्यार हो हमारे बीच, अब रूमानी बने जीवन का हर पल। अभिलाषा चौहान

खट्टी-मीठी स्मृतियां

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स्मृतियों में जिंदा सदा, जीवन जो हमने जी लिया। खट्टी-मीठी यादों का, अनुभव हमने संजो लिया। छीन सकता नहीं कोई, हमसे हमारे पल वो। जिनको माला के समान, बीते कल में संजो लिया। बचपन की वो नादानियां, घर-आंगन और गलियां। वो सारे खेल-खिलौने, संगी-साथी सहेलियां। वो भाई-बहन का प्यार, था जिस पर जीवन निसार। वो रूठना-मनाना, माता-पिता का दुलार। वो बेफिक्री वो आजादी, वो खुशियां वो मस्ती। राजा थे हम अपने मन के, सपने बड़े थे जीवन के। मीठी-खट्टी स्मृतियां, यादों की सुन्दर गलियां। मनचाहे तब विचरण करलो, हैं जीवन की अनुपम घड़ियां। अभिलाषा चौहान स्वरचित

आभूषण

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आभूषण आवरण बाहरी कर देंगे सौंदर्य वृद्धि पर .. क्या ढंक सकेंगे? मन की मलीनता क्या बदल सकेंगे अवगुणों को गुण में।। जीवन आभूषणों से नहीं सद्गुणों से संचालित सत्कर्म,सदाचरण आभूषण जीवन के सत्य,अहिंसा,प्रेम परोपकार,दया, क्षमा करूणा आदि बने आभूषण मानवीयता में लगते चार चांद।। सौंदर्य की पराकाष्ठा आभूषण नहीं, आभूषण सौंदर्य वृद्धि कारक कविता-वनिता सुशोभित आभूषणों से। कविता में शब्द-अर्थ करते चमत्कार बनते अलंकार करते अलंकृत बनता काव्य सुन्दर मगर आत्मा काव्य की नहीं बन सकते भाव काव्य में भर नहीं सकते।। नारी के सौभाग्य प्रतीक दुल्हन के श्रृंगार कारक मात्र प्रतीक चिन्ह! होते आभूषण सर्वस्व नहीं होते आभूषण! क्योंकि..... बाहरी सौंदर्य से ज्यादा आंतरिक सौंदर्य है महत्त्वपूर्ण!! अभिलाषा चौहान स्वरचित

परंपरा बस नाम की(अतिथि)

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अतिथि देवो भव हुआ करते थे कभी जिनके आगमन से पलक पांवड़े बिछ जाते थे कभी छलक उठता था अपनापन बरस उठते थे नेह-घन घर भले ही छोटे थे पर दिल बहुत थे बड़े अतिथि की मान-मनुहार में रहते थे हाथ बांधे खड़े वक्त ने बदली जो करवट संस्कृति धूमिल हुई अतिथि देवो भव परंपरा नाम की हुई अतिथि से हट गया 'अ'रह गई बस तिथि पहले ही बतानी पड़ती है पहुंचने की तिथि समय की है कमी होती नहीं किसी की छुट्टी मोबाइल हैं किसलिए बतानी ही पड़ती है आगमन की तिथि अभिलाषा चौहान

बढ़ता औद्योगिकीकरण

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औद्योगिकीकरण विकास के बढ़ते चरण उत्तम पर अनियोजित होता वातावरण प्रदूषित।। ये औद्योगिक कारखाने उगलते जहरीला धुआं कटते वन संकट में जीवन होती जा रही हवा जहरीली लीलती जा रही जीवन।। निकलता कारखानों से अपशिष्ट और कचरा मिलता नदियों में करता जल प्रदूषित जहरीला होता जल नहीं बचेगा कल।। जीवन को सुविधा संपन्न बनाने के लिए उठाए कदम घोंटते पर्यावरण का दम बढ़ रहे रोग,दुख भोगते लोग।। बढ़ता व्यवसायीकरण स्वार्थ के बढ़ते चरण उपभोक्ता वादी नीति रिश्तों में बढ़ी अनीति।। तनाव, आपाधापी उपकरणों में उलझा जीवन यंत्रों के बीच यांत्रिक जीवन नीरस, शुष्क,बेजान मधुरता खोता जीवन।। अभिलाषा चौहान       ‌

बचपन के दिन

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बचपन के दिन बड़े सुहाने थे, हम गम से अनजाने थे। छल-छंदों के न ताने-बाने थे, खेल-कूद के हम दीवाने थे। वो गलियां, वो घर-आंगन, जिनमें में बीता मेरा बचपन। खुशियों से भरे थे पल-छिन वो पल कितने सुहाने थे। वो कच्ची अमियां,खट्टी इमली, बागों में रोज पकड़ना तितली। तब हंसी नहीं थी नकली, खुशियों के हम परवाने थे। भरा-पूरा था परिवार वहां, सब खूब लुटाते प्यार वहां। दादा-दादी, नाना-नानी, किस्से कितने ही सुहाने थे। वो सखियां वो हमजोली, जैसे मस्तानों की टोली। वो गुड्डे-गुड़ियां,वो झूले अनगिन खेल सुहाने थे। वो विद्यालय में आना-जाना, गुरू जी से नित सजा पाना। फिर अच्छे अंक भी ले आना, वे सपने कितने सुहाने थे। अभिलाषा चौहान स्वरचित

मिथ्या

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ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या कहते हैं वेद-पुराण। जग उलझा माया में, नहीं सत्य का भान। ईश्वर भक्ति को त्याग कर, माया के पीछे भागे। मेरा-तेरा अपना-पराया कर - कर समय बितावे। न सांसों पर जोर चले, न धड़कन साथ निभावे । मूरख मन अति बावरा मिथ्या के पीछे भागे। इस सुंदर संसार को, मिथ्या बातों से बांटे। मानव माया का दास बन, अपनी जड़ ही काटे। खाली हाथ आए थे, और खाली हाथ ही जाना। जीवन बड़ा अनमोल है, क्यों प्रपंचों में उलझाना। अभिलाषा चौहान

भरोसा

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भरोसा जोड़ता दिल को दिल से, हर रिश्ते की नींव यही होता है। जिंदगी के व्यापार चलते भरोसे पर, भरोसा हर संबंध की जान होता है। भरोसे पर टिकी है जिंदगी सारी, इसके बिना जीवन नर्क होता है। कांच के समान होता है भरोसा, जरा सी ठेस से चूर-चूर होता है। टूटता है तो बहुत चुभन होती है, दिल टूटता और दर्द बहुत होता है। उठ जाता है भरोसा जिंदगी से फिर फिर किसी पर भरोसा कहां होता है। अभिलाषा चौहान स्वरचित

छठ पर्व

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कार्तिक शुक्ल चतुर्थी से मनता ये त्योहार, सर्वेभवन्तु सुखिना इस पर्व का है आधार। त्रेता-द्वापर काल से मनता आ रहा ये पर्व, चार दिनों तक चलता सूर्योपासना का पर्व। छठी मैया की करते सूर्यदेव भी उपासना, सब जन त्योहार मनाएँ होती निर्मल भावना। निर्जल-निराहार करते सूर्यदेव की साधना, सुख-समृद्धि संतान प्राप्ति की करें कामना। नहाय-खाय से आरंभ होता ये पावन त्योहार, घर-शरीर-मन शुद्धता के साथ आरंभ हरबार । गन्ने के रस खीर बना भोग लगा मनाएं खरना, संध्या में दे अर्घ्य सूर्य को प्रसाद ग्रहण करना। बांस टोकरी रखे ठेकुआ फल-फूल और मेवा, संध्या में जल-बीच में सूर्य को दे अर्घ्य करें सेवा नदी-तालाब किनारे ये पर्व मनाया है जाता, चार दिन कर उपवास मंगल गीत गाया जाता। उगते सूर्य को अर्घ्य दूध से पीपल पूजा होती, पीकर दूध शर्बत परणा विधि पूर्ण होती। विज्ञान और ज्योतिष से जुड़ा ये पावन पर्व, रीति-नीति का पालन कर त्योहार मनाए सर्व। अभिलाषा चौहान स्वरचित ,

ऐसी रही दीवाली

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कुछ खट्टे कुछ मीठे, अनुभव देकर गई दीवाली। कुछ बीते पल याद आए, बच्चों बिन सूनी रही दीवाली। कुछ भावों के दीप जले, कुछ नए प्रेम के पुष्प खिले। झिल-मिल, झिल-मिल दीप जले, बस मन ही गई दीवाली। मेल-मिलाप का दौर चला, कुछ सूनापन-सा बहुत खला। उत्साह-उमंग की कमी खली, बस शुभकामनाएं ही लगी भली अपने में सिमटी रही दीवाली। प्रेम का घट गया घनत्व, औपचारिकता का बढ़ा महत्व। चकाचौंध थी हुई भरपूर, बस जीवन में कम था नूर। पाँच दिनों का ये त्योहार, लाया था खुशियाँ अपार, साफ-सफाई के दौर चले, सौंधे-सौंधे पकवान बने। बात एक बस अच्छी लगी, माटी के दीपक में लौ जगी। पटाखों ने बहुत मचाया शोर, हुआ प्रदूषण फिर पुरजोर। भाई - दूज का आया दिन, सूना रहा भाई के बिन मन ही गया पावन त्योहार पर कुछ कमी खली इस बार। अभिलाषा चौहान स्वरचित

सौंदर्य की परिभाषा

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नयनों की भाती सुंदरता, देख उर आनंदित होता। सुंदर-सुंदर ये सृष्टि सारी, नयन उस पर हों बलिहारी। हृदय भाव, गुण हो यदि सुंदर, जीवन सरल सहज अति सुंदर। सद्गुण आचरित जीवन सारा, उत्तम चरित्र जगत विस्तारा । सुंदर रूप हो असुंदर सीरत, दुष्कर जीवन हो प्रेम रहित। सुंदर सीरत भाव हो अनुपम, कोई न हो जग में उसके सम। रूप उम्र संग ढलता जाता, सीरत उम्र संग चार चाँद लगाता। करो सुंदर भावों का अवगुंठन, कलुष मिटे सुंदर जग-जीवन। अभिलाषा चौहान स्वरचित

कब आएगी ऐसी दीवाली

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राम अयोध्या आए मनने लगी दीवाली, हर घर में फिर भी आई न खुशहाली। राम नाम की महिमा खूब गई बखानी, राम-नाम के मर्म से बने रहे अज्ञानी। राम को दिल में अब तक नहीं बसाया, राम-चरित को जीवन में नहीं अपनाया। राम ने शबरी के झूठे बेर भी खाए, हम मन से जाति-भेद मिटा न पाए। राम-लक्ष्मण बने इक-दूजे की परछाई, वर्तमान में देखो भाई का दुश्मन भाई । अब भी अबला नारी बनी हुई बेचारी, हर घर बैठे रावण नहीं सुरक्षित नारी। तुमने मारा रावण हमने दशहरा मनाया, तुमसे ज्यादा लोगों में रावण जिंदा पाया। राम घर आए खुशियों के दीप जलाए मन में छाया अंधकार कहाँ मिटा पाए। कहीं रौंनके होती कहीं छाया अंधियारा, गरीब बेचारा तरसे कोई नहीं सहारा। कब आएगी राम ऐसी सुंदर दीवाली हर घर खुशियाँ होंगी अमा मिटेगी काली। अभिलाषा चौहान स्वरचित

धनतेरस

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पूरी करे धन्वंतरि, सबके मन की आस। रोग-दोष सब दूर रहें, जब आयुर्वेद हो पास। सच्चा सुख है सदा, स्वस्थ निरोगी शरीर। हर लेते भगवान, सबके मन की पीर। धनतेरस के दिन, होती उनकी उपासना। उनकी पूजा-पाठ से, पूरी हो मनोकामना। उत्तम काया-माया का, प्रभु देवें वरदान। अमृत आयुर्वेद का, करो सदा रसपान। आयुर्वेद में छिपा, लम्बी उम्र का राज, बडे़ - बडे़ रोगों का होता तुरंत इलाज। मंगलकारी पर्व पर, सबके पूरे हों अरमान। भगवान धन्वंतरि की कृपा, से हो जीवन आसान। अभिलाषा चौहान स्वरचित

अतीत

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अतीत और वर्तमान, सहोदर सम सदा साथ,                               संवारते भविष्य को। अतीत देता है प्रेरणा, गलतियों को न दोहराने की, सिखाता है सबक। लेकिन..............! मैंने लोगों को अतीत में डूबे देखा है, अतीत को लेकर वर्तमान को, बिगाड़ते देखा है। चलती हैं पुश्तैनी लड़ाइयाँ, होते हैं वाक-युद्ध, उखड़ते हैं गढ़े मुर्दे, यही तो देखते हैं प्रतिदिन। वर्तमान राजनीति, रोना रोती अतीत का, भूल वर्तमान को, करती दोषारोपण। अतीत तो भारत का, बड़ा सुनहरा था। ज्ञान-विज्ञान अनुसंधान से, भारत का रिश्ता गहरा था। वीरता-विनय सत्य - अहिंसा, आभूषण थे। वीरों की गाथाओं से सजा था, अतीत हमारा। पौराणिक गाथाओं से, समृद्ध संसार ये सारा। केवल कल्पनाएं रह गई , ये अनुपम सौगातें। अब तो बना अतीत को मोहरा, हो रही हैं घातें। अभिलाषा चौहान स्वरचित चित्र गूगल से साभार 

आया चुनाव का मौसम

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आया चुनाव का मौसम नेता बुन रहे जाल, लोक-लुभावन वादों के बुनते मायाजाल। फैलाए मायाजाल  नित चलते नई चाल, नेताओं की नीतियाँ बनी जी का जंजाल। सत्ता के भूखे जनता का रखें न ख्याल, जनता बेचारी निशदिन होती है हलाल। हाथ जोड़ते फिरते मासूम बना के हाल , वोटो की राजनीति नित करती खड़ा बवाल। सत्ता में आकर नेताजी होते हैं मालामाल, कब लोगे सुधि हमारी जनता पूछे सवाल। अभिलाषा चौहान                  छायाचित्र गूगल से साभार 

सुनसान वादियाँ

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**(1)** ये वादियाँ, ये लहराते दरख्त, नीले आसमां तले, नीली आभा में ढले, दिखते हैं मायूस, बिखरी नीम खामोशी, बनती है गवाह हर पल की। ये शांत सुरम्य वातावरण, प्रकृति का अनंत सौंदर्य, अनिर्वचनीय, अद्वितीय, बन गया पनाहगार, निर्मम आतंक का। ये सूने मकान, ये दरोदीवार, जीवनोल्लास से रहित, भय से ग्रसित, ये जन्नत !! बन गई कैद खाना, दुबके घरों में लोग, हताश व निराश। छिन गई जीवन की सरलता, हर और दिखती विकलता, प्रकृति में भी नहीं सहजता, जीवन में आ गई दुरूहता।। ****(2)***** प्रकृति की गोद में रचा-बसा मैं आज रोता हूँ अपनी वीरानी पर शहरीकरण ने उजाड़ दिया मुझे छीन लिए मुझसे मेरे अपने जो यहाँ पले-बढ़े वे बन गए सपने नहीं गूंजती यहाँ खिलखिलाहट नहीं होती आने की आहट उजड़ा हुआ मैं अकेला क्या-क्या न मैंने झेला ये दरख्त ये वादियाँ गवाह हैं मेरे दुख की बीते हुए सुख की नीलाभ नभ सी छाई शून्यता मैं अकेलेपन को ताकता किसे भाता है गांव इन दरख्तों की छांव अब न मनती दीवाली होली बस सब है खाली-खाली बचे इक्के-दुक्के लोग मेरी तरह खामोशी रहे भोग। अभिलाषा चौहान

ज्योति जीवन की

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असीम विषमताएं अनेक समस्याएं उलझा जीवन लड़ता जंग जिंदगी की। अभी भी जल रही आश-ज्योति प्रदीप्त जिजीविषा प्रबल होती प्राण- ज्योति अनवरत, निरंतर। जीवन-गति निर्बाध, निर्बंध चलायमान करती सामना। आंधियों तूफानों का सतत प्रज्वलित ज्ञान-ज्योति से। अमानवीयता के आवरण में धर्म, सद्भाव, मानवता बुझती हुई लौ सम बस एक प्रयास और जल उठती है मानवीयता की ज्योति। यह सृष्टि आत्म-ज्योति से प्रकाशित परमात्म-स्वरूप सतत प्रवाहमान अद्वितीय, अनुपम। अभिलाषा चौहान

अपूर्ण यात्रा

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भौतिकता और अध्यात्म में उलझता मानव जीवन फंस जाता है अक्सर भौतिकता के व्यामोह में। माया का आवरण ढंक लेता अंतरतम को नहीं सूझती कोई राह अध्यात्म से बेपरवाह कस्तूरी मृग सम भटकता संसार में। सुख, शांति,संतोष की प्रबल लालसा भौतिक साधनों में ढूंढती आत्मानंद। बौद्धिकता का बन प्रबल दास आत्मा को देता नकार अहम के घोड़े पर सवार चंचल मन व्याकुल अतृप्त प्यासा मायावी दुनिया में ढूंढता अमृत की बूँद। ध्यान, चिंतन, योग का अभाव घटता हुआ सद्भाव कर देता विमुख अध्यात्म से जो यात्रा है आत्मा की परमात्मा से मिलन की वह अपूर्ण रह जाती है। अभिलाषा चौहान स्वरचित 🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷

मिट जाएं दूरियां.....

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मिट जाएं दूरियां कोई बात तो हो, जीवन में प्यार की शुरुआत तो हो। क्यों बढ़ गई हैं तन्हाइयां इतनी, दूर हो जाएंगी रोज मुलाकात तो हो । हमने तो लुटाया दिल का चमन अपना, सहेज लो तुम इसे इतने जज्बात तो हो। दर्दे-इश्क के समंदर में डूबती कश्ती हमारी, रही इसकी वजह क्या हमें मालूमात तो हो। रह-रह के जागती अभिलाषा ये मन में, कभी बदलेंगी हवाएं सही हालात तो हो। अभिलाषा चौहान स्वरचित

करवाचौथ पर्व पुनीत प्रेम का

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करवाचौथ पर्व पुनीत प्रेम का, पति की दीर्घायु कुशल क्षेम का। फिर आया पावन पर्व मनोहर, हृदय भाव बहते हैं निर्झर। प्रेम - प्रीत परवान चढ़ी है , मन-वीणा झंकृत हो उठी है। प्रियतम जनम - जनम के साथी, साथ हमारा दिया और बाती। कभी ये सोलह श्रृंगार न छूटें, भाग्य मेरा मुझसे न रूठे। बनी सुहागन रहूं सुहागन, मर कर भी मैं सदा सुहागन। घूमूं फिरूं मैं तेरे आंगन, ओ मनमीत मेरे मनभावन। मांग सदा सिंदूर से दमके, माथे पर सदा बिंदिया चमके। हाथों में कंगन की खन-खन, पैरों में पायल की छन-छन। आज बनी मैं फिर से दुल्हन, भाव हृदय के तुझको अर्पण। तुम हो चांद मेरे जीवन के , सदा चमकना चंद्रमा जैसे। आओ तुम्हारी आरती उतारूं , नयनों से ये छवि निहारूं। करके पूजा मैं माता की दुआ मांगू तेरी लंबी उम्र की। रखना मेरी प्रीत का मान , मैं शरीर तुम मेरे प्राण। अभिलाषा चौहान स्वरचित

हृदय समंदर होता उनका...

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सीधा-सादा जीवन जिनका,              और होते हैं उच्च विचार। वे ही जन इस जगत का,              करते हैं सदा परिष्कार। करूणा के बादल बरसाते,              स्नेह-सुधा लुटाते हैं। दीन-दुखी की सेवा कर,              तन-मन से हरषाते हैं। हृदय - समंदर होता उनका,              जिसमें सभी समाते हैं। समदर्शी, समता भाव से              सबको गले लगाते हैं। वाणी से मधु-रस बरसाते,              प्रेम के पुष्प खिलाते हैं मानवता को धर्म मानकर,               उस पथ पर चलते जाते हैं । घर कितना ही छोटा हो,                हृदय बड़ा होता उनका। परोपकार और जग-कल्याण से,                सजा होता है घर उनका। जीवन को जीवन मानकर,                सब जीवों को अपनाते। जीवन की रक्षा में रत,                 सर्वस्व अर्पित कर जाते। अभिलाषा चौहान स्वरचित हमकदम

मिट्टी से मिट्टी का नाता

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ये संसार मिट्टी का घड़ा, मिट्टी में मिल जाएगा। सोच रहा तू क्या बंदे! क्या लेकर के जाएगा? मिट्टी से बना शरीर, मिट्टी में मिल जाएगा । सोच रहा तू क्या बंदे! क्या लेकर के जाएगा? बात सही थी लेकिन तुझको, अब तक भी न खबर हुई। मेरा-तेरा करते-करते, तेरी पूरी उमर हुई। ये मिट्टी का घड़ा शरीर, आत्मा इसका है स्थान। जिस दिन त्यागा उसने इसको, पहुंच जाएगा तू श्मशान। आंखे खोलकर देख सत्य को, करले अपना जीवन आसान। वेद-पुराण भी इस सत्य का, करते आए सदा बखान। मिट्टी से मिट्टी का नाता कभी नहीं है टूटा । खाली हाथ जाना है सबको, जो जोड़ा सब यहीं छूटा। अभिलाषा चौहान

क्षण का ही खेल है सारा

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क्षणभंगुर संसार ये सारा क्षण का जीवन क्षण में मिटता क्षण में बीते जीवन सारा। क्षण ही सत्य क्षण ही शाश्वत क्षण का ही ये खेल है सारा। क्षण में राजा क्षण में रंक क्षण में बदले संसार ये सारा। क्षण का जीवन क्षण में ही जीना क्षण में मृत्यु ने आंचल पसारा। क्षण में दुख क्षण में सुख क्षण में नियति का परिवर्तन सारा। क्षण ही स्मृति क्षण ही स्वप्न क्षण संचालित काल ये सारा। क्षण में मिलन क्षण में जुदाई क्षण आधारित संसार ये सारा। अभिलाषा चौहान स्वरचित

रोशनी औरों के यहाँ बिखेर देते हैं !

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जिनके घर महलों से नहीं होते हैं, उनके दरवाजे सबके लिए खुले होते हैं। तंगहाली में खुशहाल रहते हैं वो लोग सबकी मदद को वे खड़े रहते हैं। प्रेम से सजा होता है घर उनका, गैरों के दुख - दर्द अपने होते हैं । इंसानियत रग-रग से झलकती उनके, करूणा से हृदय भरे होते हैं । जिंदादिली से जीते जीवन वे सदा, हंसकर गम को भुला देते हैं। साजों-सामां घर में हो या न हो, घर को घरवालों से सजा लेते हैं। खुशियों को बांटकर खुश होते, गम को बिछौना बना के सोते हैं। करता सुकून उनके घर में बसेरा, गैरों को अपना बना लेते हैं । रहते दिल के दरवाजे उनके खुले, बंधनों को वे पनाह नहीं देते हैं । रोज उगाते वे अपना सूरज, रोशनी औरों के यहां बिखेर देते हैं । अभिलाषा चौहान स्वरचित (हमकदम) 

फिर आया सवेरा

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******सवेरा****** देखो फिर से हुआ सवेरा, सूर्यदेव ने डाला डेरा। पक्षीद्वय भी जाग उठें हैं, कलरव उनके गूंज रहे हैं। वृक्षों ने भी ली अंगड़ाई, चलने लगी पवन पुरवाई । ओस की बूंदें चमकी ऐसे, हीरे की कनियां हो जैसे। कलियाँ भी फिर से मुस्काई, खिलने की बारी जो आई। हमने भी जब आंखें खोली, ईश्वर से इक बात ही बोली। सबके जीवन आए सवेरा, कहीं नहीं हो तम का घेरा। नित खुशियां वहां करे बसेरा, ऐसा आए नित नया सवेरा। अभिलाषा चौहान स्वरचित चित्र गूगल से साभार 

हृदय भाव बहते निर्झर

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हृदय भाव बहते निर्झर, भावों की भूमि सदा उर्वर। भावों के मोती चुन-चुनकर, शब्दों की माला में ढ़ल कर। सुंदर बनता है काव्य सदा, मन आनंदित रहता सदा। अविरल पथ है भावों का, सुंदर - सुंदर सद्भावों का। भावों की माला में गुंथकर, सृजन काव्य का होता है। भाव काव्य का होता प्राण,  शब्द शरीर का करे निर्माण। तब उत्तम काव्य सृजित हुआ, रसमय सारा संसार हुआ, क्लेश-विकार का नाश हुआ। अब जीवन आलोकित है, जीवन उद्देश्य भी लक्षित है । काव्यामृत से जीवन सिंचित है, अब यही पथ हमें वांछित है। यह यात्रा ऐसे ही चलती रहे, नित पुष्पित - पल्लवित होती रहे। अभिलाषा चौहान स्वरचित                                                      

आंसुओं को पनाह नहीं मिलती

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तोहमतें हजार मिलती हैं, नफरतें हर बार मिलती हैं, टूट कर बिखरने लगता है दिल, आंखें जार-जार रोती हैं, देख कर भी अनदेखा कर देते हैं लोग, आंसुओं को पनाह नहीं मिलती।। मुफलिसी के आलम में गुजरती जिंदगी, सपनों को बिखरते देखा करे जिंदगी , फिरती है दर-बदर ठोंकरे खाती, किस्मत को बार - बार आजमती जिंदगी, मौतें हजार मिलती हैं, आंखें जार-जार रोती हैं, आंसुओं को पनाह नहीं मिलती।। अपनों को तड़पते देखती जिंदगी, चंद सिक्कों के लिए भटकती जिंदगी, मारी- मारी फिरती है दर-बदर, इंसान की इंसान ही करता नहीं कदर, इंसानियत जार - जार रोती है, आंसुओं को पनाह नहीं मिलती।। तड़पती मासूम भेड़ियों के बीच में, दुबकती और सिमटती है, मांगती भीख रहनुमाई की, हैवानियत कहां रोके रुकती है, सिसकती है और फूट-फूट कर रोती है, आंसुओं को पनाह नहीं मिलती। टूटता घर और फूटता नसीब उनका, बन गए हैं बोझ जहां रिश्ते, देखते उजड़ते आशियाने को, बूढ़े मां-बाप अपने श्रवणों को, उनकी ममता बार-बार रोती है, आंसुओं को पनाह नहीं मिलती। । अभिलाषा चौहान